Home
← पिछला
अगला →

* अध्याय २९३ *

५९७

स्वयं भी एक सहस्लकी संख्यामें जप करे । | केवल जिह्वा हिलाकर जप किया जाय तो वह

अकस्मात्‌ कहींसे सुना हुआ, छल अथवा बलसे

प्राप्त किया हुआ, पुस्तकके पन्नेमे लिखा हुआ

अथवा गाधा कहा गया मन्त्र नहीं जपना

चाहिये । यदि ऐसे मन्त्रका जप किया जाय तो

वह अनर्थं उत्पन्न करता है। जो जप, होम तथा

अर्चना आदि भूरि क्रियाओंद्वारा मन्त्रकी साधनामें

संलग्र रहता है, उसके मन्त्र स्वल्पकालिक

साधनसे ही सिद्ध हो जाते हैं। जिसने एक

मन्रको भी विधिपूर्वक सिद्ध कर लिया है,

उसके लिये इस लोकमें कुछ भी असाध्य नहीं

है; फिर जिसने बहुत-से मन्त्र सिद्ध कर लिये हैं,

उसके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन किया

जाय ? वह तो साक्षात्‌ शिव ही है। एक अक्षरका

मन्त्र दस लाख जप करनेसे सिद्ध हो जाता है।

मन्त्रमें ज्यों-ज्यों अक्षरकी वृद्धि हो, त्यों-ही-त्यों

उसके जपकी संख्यामें कमी होती है। इस

नियमसे अन्य मन्त्रोके जपकी संख्याके विषये

स्वयं ऊहा कर लेनी चाहिये। बीज-मन्त्रकी

अपेक्षा दुगुनी -तिगुनी संख्याम मालामन्त्रोंके

जपका विधान है।: जहाँ जपकी संख्या नहीं

बतायी गयी हो, वहाँ मन्त्र-जपादिके लिये एक

सौ आठ या एक हजार आठ संख्या जाननी

चाहिये । सर्वत्र जपसे दशांश हवन एवं तर्पणका

विधान मिलता है ॥ १६--२५॥

जहाँ किसी द्रव्य-विशेषका उल्लेख न हो, वहाँ

होममें घृतका उपयोग करना चाहिये। जो आर्थिक

दृष्टिसे असमर्थ हो, उसके लिये होमके निमित्त

जपकी संख्यासे दशांश जपका ही सर्वत्र विधान

मिलता है। अङ्ग आदिके लिये भी जप आदिका

विधान है। सशक्ति-मन्त्रके जपसे मन्त्रदेवता

साधकको अभीष्ट फल देते हैं। वे साधकके द्वारा

किये गये ध्यान, होम और अर्चन आदिसे तृप्त

होते हैं। उच्वस्वरसे जपकी अपेक्षा उपांशु (मन्दस्वरसे

किया गया) जप दसगुना श्रेष्ठ कहा गया है। यदि

सौ गुना उत्तम माना गया है। मानस (मनके द्वारा

किये जानेवाले) जपका महत्त्व सहस्रगुना उत्तम

कहा गया है। मन््र-सम्बन्धी कर्मका सम्पादन

पूर्वांभिमुख अथवा दक्षिणाभिमुख होकर करना

चाहिये। मौन होकर विहित आहार ग्रहण करते

हुए. प्रणव आदि सभी मन्‍्त्रोंका जप करना

चाहिये। देवता तथा आचार्यके प्रति समान दृष्टि

रखते हुए आसनपर बैठकर मन्त्रका जप करे।

कुटी, एकान्त एवं पवित्र स्थान, देवमन्दिर, नदी

अथवा जलाशय --ये जप करनेके लिये उत्तम देश

हैं। मन्त्र-सिद्धिक लिये जौकी लप्सी, मालपूए,

दुग्ध एवं हविध्यानका भोजन कंरे। साधक

मच््रदेवताका उनकी तिथि, वार, कृष्णपक्ष

अष्टमी-चतुर्दशी तथा ग्रहण आदि पर्वोपर पूजन

करे । अश्चिनीकुमार, यमराज, अग्नि; धाता, चन्द्रमा,

रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प, पितर्‌, भग, अर्यमा,

सूर्य, त्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, जल,

निरति, विशदेव, विष्णु, वसुगण, वरुण, अजैकपात्‌,

अहिर्बुध्न्य और पूषा-ये क्रमशः अश्विनी आदि

नक्षत्रोंके देवता हैं। प्रतिपदासे लेकर चतुर्दशीपर्यन्त

तिथियोंके देवता क्रमशः निम्नलिखित हैं--अग्रि,

ब्रह्मा, पार्वती; गणेश, नाग, स्कन्द, सूर्य, महेश,

दुर्गा; यम, विश्वदेव, ` विष्णु, कामदेव और

ईश, पूर्णिमाके चन्द्रमा और अमावस्याके देवता

पितर हैं। शिव, दुर्गा; बृहस्पति, विष्णु, ब्रह्मा,

लक्ष्मी और कुबेर--ये क्रमशः रविवार आदि

वारोंके देवता हैं। अब मैं 'लिपिन्यास' का वर्णन

करता हूँ॥ २६३६ ॥

साधक निम्नलिखित प्रकारसे लिपि (मातृका)

न्यास करे-- “3 अं नमः, केशान्तेषु। ॐ आं

नमः, मुखे । ॐ इं नमः, दक्षिणनेत्रे । ॐ ई नमः,

वामनेत्रे । ॐ ठं नमः, दक्षिणकर्णे । ॐ ऊँ नमः,

वामकर्णे । ॐ ऋ नमः, दश्चिणनासापुटे। ॐ उछू

नमः, वामनासापुटे) ॐ लूं नमः, दक्षिणकपोले।

← पिछला
अगला →