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परब्‌

द्रढढर्म

रनज

राशि-ज्ञानका उपयोग- साधकके नामका

आदि अक्षर जहाँ हो, उस राशिसे मन्त्रके आदि

अक्षरकी राशितक गिने। जो संख्या हो, उसके

अनुसार फल जाने। यदि संख्या छठी, आठवों

अथवा बारहवीं हो तो वह निन्द्य है । इन बारह

संख्याओंको “बारह भाव” कहते हैँ । उनकी

विशेष संख्यासंज्ञा इस प्रकार है--तनं, धन,

सहज, सुहद्‌, पुत्र, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म,

आय और व्यय। मन्त्रके अक्षर यदि मृत्यु, शत्रु

तथा व्यय भावके अन्तर्गत हैं तो वे अशुभ हैं।

(सिद्धादि मन्त्र-शोधन-प्रकार )

[हन ब]इचञ)]

चौकोर स्थानपर पाँच रेखाएं पूर्वसे पश्चिमकी

ओर तथा पाँच रेखाएं उत्तरसे दक्षिणकी ओर

खींचे। इस प्रकार सोलह कोष्ठ बनाये । इनमें

क्रमशः सोलह स्वरगोको लिखा जाय । तदनन्तर

उसी क्रमते व्यञ्जन-वर्ण भी लिखे । तीन आवृत्ति

पूर्ण होनेपर चौथी आवृत्ते प्रथम दो कोष्टोंके

भीतर क्रमश: 'ह” और “क्ष' लिखकर सब

अक्षरोंकी पूर्ति कर ले। इन सोलहमें प्रथम

कोष्टकी चार पड्क्तियां 'सिद्ध', दूसरे कोष्टकी चार

पड्क्तियां 'साध्य', तीसरे कोष्टकी चार पड्डक्तियाँ

*सुसिद्ध' तथा चौथे कोष्टकी चार पडूक्तियाँ 'अरि'

मानी गयी हैं। जिस साधकके नामका आदि

अक्षर जिस चतुष्कमें पड़े, वही उसके लिये 'सिद्ध

चतुष्क" है, वहासि दूसरा उसके लिये “साध्य',

तीसरा * सुसाध्य' और चौथा चतुष्क " अरि" है ।

जिस चतुष्कके जिस कोष्ठे साधकका नाम है,

वह उसके लिये ' सिद्ध-सिद्ध' कोष्ठ है। फिर

प्रदक्षिणक्रमसे उस चतुष्कका दूसरा कोष्ठ

उद्नद्वद है एप

/४॥४# ४४ ४७: ऋ #% १ ऋ ऋफऋफ़कफ़फक़फफ कक क के को

सिद्धसाध्य", 'सिद्ध-सुसिद्ध” तथा “ सिद्ध-अरि'

है । इसी चतुष्के यदि मन्त्रका भी आदि अक्षर

हो तो इसी गणनाके अनुसार उसके भी " सिद्ध-

सिद्ध! "सिद्ध-साध्य' आदि भेद जान लेने

चाहिये । यदि इस चतुष्कर्मे अपने नामका आदि

अक्षर हो और द्वितीय चतुष्कमें मन््रका आदि

अक्षर हो तो पूर्व चतुष्कके जिस कोष्ठमें नामका

आदि अक्षर है, उस दूसरे चतुष्कमें भी उसी

कोष्ठसे लेकर प्रादक्षिण्य-क्रमसे ' साध्यसिद्ध' आदि

भेदकी कल्पना करनी चाहिये। इस प्रकार सिद्धादिकी

कल्पना करे। सिद्ध-मन्त्र अत्यन्त गुणोंसे युक्त

होता है। “सिद्ध-मन्त्र' जपमात्रसे सिद्ध अर्थात्‌

सिद्धिदायक होता है; “साध्य-मन्त्र' जप, पूजा

और होम आदिसे सिद्ध होता है। “सुसिद्ध मन्त्र

चिन्तनमात्रसे सिद्ध हो जाता है, परंतु "अरि मन्त्र

साधकका नाश कर देता है। जिस मन्त्रमें दुष्ट

अक्षरोंकी संख्या अधिक हो, उसकी संभीने निन्दा

की है॥ १३--१५॥

शिष्यको चाहिये कि वह अभिषेकपर्यन्त

दौक्षामें विधिवत्‌ प्रवेश लेकर गुरुके मुखसे

तन्त्रोक्त विधिका श्रवण करके गुसुसे प्राप्त हुए

अभीष्ट मन्त्रकी साधना करे। जो धीर, दक्ष,

पवित्र, भक्तिभावसे सम्पन्न, जप-ध्यान आदिमे

तत्पर रहनेवाला, सिद्ध, तपस्वी, कुशल, तन््रवेत्त,

सत्यवादी तथा निग्रह-अनुग्रहमें समर्थ हो, वह

“गुरु” कहलाता है। जो शान्त (मनको बशमें

रखनेवाला), दान्त (जितेन्द्रिय), पटु (सामर्थ्यवान्‌),

ब्रह्मचारी, हविष्यानभोजी, गुरुक सेवामें संलग्र

ओर मन्त्रसिद्धिके प्रति उत्साह रखनेवाला हो,

वह “योग्य” शिष्य है । उसको तथा अपने पुत्रको

मन्त्रका उपदेश देना चाहिये । शिष्य विनयी तथा

गुरुको धन देनेवाला हो। ऐसे शिष्यको गुरु

मन्त्रका उपदेश दे और उसकी सुसिद्धिके लिये

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