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उत्तरभाद्रपदा

यह वर्णमाला नक्षत्रोंके साथ क्रमशः जोड्नी

चाहिये। केवल “अं अः'-ये दो अन्तिम

स्वर रेवती नक्षत्रके साथ सदा जुड़े रहते

हैः ॥ १०-११ ६ ॥

(इनके द्वारा जन्म, सम्पद्‌, विपत्‌, क्षेम,

प्रत्यरि, साधक, वध, पित्र तथा अतिमित्र-

१. 'शारदातिलक 'में भी यही बात कही गयी है --

लेकर मन्त्रके आदि अक्षरतक गिने। उसमें

नौका भाग देकर शेषके अनुसार जन्मादि

तारयेको जने।)

(बारह राशियोंमें वर्णोका विभाजन )

वालं गौरं खुर शोणं शमी शोभेति भेदिता:।

लिष्यणां राशिषु जञेयाः षट्टे शार्दीक्ष योजयेत्‌॥ १२॥

(जैसा कि पूर्व श्लोकमें संकेत किया है,

उसी तरह ' वासे लेकर * भा" तकके बारह अक्षर

क्रमशः मेष आदि राशियों तथा ४ आदि संख्याओंकी

ओर संकेत करते हैं-) वा ४ लं ३ गौ ३ रं २

खु२रं२ शो ५ णं ५ भा ४। इन संख्याओंमें

विभक्त हुए अकार आदि अक्षर क्रमश: मेष

आदि राशियोंमें स्थित जानने चाहिये। 'शष स

ह' इन अक्षरोंकों (तथा स्वरान्त्य वर्णो “अं

अ: 'को) छठी कन्याराशिमें संयुक्त करना चाहिये'।

क्षकारका मीनराशिमें प्रवेश है'। यथा--

*स्वरास्वी तु रेवत्यंशगती सदा" ॥ (२। १२५)

२. 'शास्दातिलक” २। १२७ में यह श्लोक कुछ पाट्तरके साथ ऐसा ही है। उसकी संस्कृत व्याख्यामें यही भाव व्यक्त किया गया है।

३. जैसा कि आचार्योने कहा है--' अमः शवर्गलेभ्यश्च संजाता कन्यका मता।' तथा--' चतुर्पियाँदिभि: साधं स्यात्‌ क्षकारस्तु मीनग: ।'

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