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स्तोत्रॉंका एक सहस्र बार पाठ करनेसे अथवा

सभी मन्तरौँको पहली बार एक लाख जप करनेसे

उन मन्त्रोंकी तथा अपनी भी शुद्धि होती है।

दूसरी बार एक लाख जपनेसे मन्त्र क्षेत्रीकृत होता

है। बीज-मन्त्रोंका पहले जितना जप किया गया

हो, उतना ही उनके लिये होमका भी विधान है।

अन्य मन्त्रादिके होमकी संख्या पूर्वजपके दशांशके

तुल्य बतायी गयी है। मन्त्रसे पुरश्चरण करना हो

तो एक-एक मासका ब्रत ले। पृथ्वीपर पहले

-बायाँ पैर रखे। किसीसे दान न ले। इस प्रकार

दुगुना और तिगुना जप करनेसे ही मध्यम और

उत्तम श्रेणीकी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अब मैं

मन्त्रका ध्यान बताता हूँ, जिससे मन्त्र-जपजनित

फलकी प्राप्ति होती है। मन्त्रका स्थूलरूप शब्दमय

है; इसे उसका बाह्य विग्रह माना गया है। मन्त्रका

सक्ष्मरूप ज्योतिर्मय है । वही उसका आन्तरिक

रूप है । यह केवल चिन्तनमय है । जो चिन्तनपे

भी रहित है, उसे 'पर' कहा गया है । वाराह,

नरसिंह तथा शक्तिके स्थूल रूपकी ही प्रधानता

है। वासुदेवका रूप चिन्तनरहित (अचिन्त्य)

कहा गया ह ॥ १८--२७॥

अन्य देवताओंका चिन्तामय आन्तरिक रूप

स्वरूप बताया गया है, वह चिन्तारहित है।

बीज-मन्त्र हृदयकमले निवास करनेवाला,

अविनाशी, चिन्मय, ज्योतिःस्वरूप और जीवात्मक

है । उसकी आकृति कदसम्ब-पुष्पके समान है-

इस तरह ध्यान करना चाहिये । जैसे घड़ेके भीतर

रखे हुए दीपककी प्रभाका प्रसार अवरुद्ध हो

जाता है; वह संहतभावसे अकेला ही स्थित रहता

है; उसी प्रकार मन्त्रेश्र हृदयमें विराजमान हैं।

जैसे अनेक छिद्रवाले कलशमें जितने छेद होते

हैं, उतनी ही दीपककी प्रभाकी किरणें बाहरकी

ओर फैलती हैं, उसी तरह नाडियोंद्वारा ज्योतिर्मय

बीजमन्त्रकी रश्मियाँ आँतोंको प्रकाशित करती

हुई दैव-देहको अपनाकर स्थित हैं। नाडियाँ

हदयसे प्रस्थित हो नेत्रेन्द्रियेंतक चली गयी हैं।

उनमेंसे दो नाडियाँ अग्नीषोमात्मक हैं, जो

नासिकाओंके अग्रभागमें स्थित हैं। मन्त्रका साधक

सम्यक्‌ उद्घात-योगसे शरीरव्यापी प्राणवायुको

जीतकर जप और ध्यानमें तत्पर रहे तो वह

मन्त्रजनित फलका भागी होता है। पञ्चभूततन्मात्राओं -

की शुद्धि करके योगाभ्यास करनेवाला साधक

यदि सकाम हो तो अणिमा आदि सिद्धियोंको

पाता है और यदि विरक्त हो तो उन सिद्धियोंको

ही सदा “मुख्य' माना गया है। “वैराज' अर्थात्‌ | लाँधकर, चिन्मय स्वरूपसे स्थित हो, भूतमात्रसे

विराट्का स्वरूप 'स्थूल' कहा गया है। लिङ्गमय

तथा इन्द्रियरूपी ग्रहसे सर्वथा मुक्त हो जाता

स्वरूपको 'सूक्ष्म' जानना चाहिये। ईश्वरका जो | है॥ २८--३६ ॥

इस प्रकार आदि आर्नेय महापुद्रणर्में 'भद्र-मण्डलादिविधि-कथन ' नामक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ # ३० #

न अी

इकतीसवाँ अध्याय

*अपामार्जन-विधान' एवं “कुशापामार्जन' नामक स्तोत्रका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- मुने! अब मैं अपनी | है, जिसके द्वारा मानव दुःखसे छूट जाता है और

तथा दूसरोंकी रक्षाका उपाय बताऊँगा। उसका | सुखको प्राप्त कर लेता है। उन सच्चिदानन्दमय,

नाम है--मार्जन (या अपामार्जन)। यह वह रक्षा | परमार्थस्वरूप, सर्वान्तर्यामी, महात्मा, निराकार

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