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बाहरके छः कोष्ट मिटाकर बीचके पार्श्रभागोंके

चार मिटा दे। फिर भीतरके चार और बाहरके

दो कोष्ठ 'शोभा'के लिये मिटावे। इसके बाद

उपद्वारकी सिद्धिके लिये भीतरके तीन और

बाहरके पाँच कोष्टोंका मार्जन करे। तत्पश्चात्‌

पूर्ववत्‌ 'शोभा 'की कल्पना करे। कोणोंमें बाहरके

सात और भीतरके तीन कोष्ठ मिटा दे। इस प्रकार

जो पञ्चविंशतिका व्यूहमण्डल तैयार होता है,

उसके भीतरकी कमलकर्णिकामें परब्रह्म परमात्माका

यजन करे। फिर पूर्वांदि दिशाओंके कमलोंमें

क्रमशः वासुदेव आदिका पूजन करे। तत्पश्चात्‌

पूर्ववर्तो कमलपर भगवान्‌ वराहका पूजन करके

क्रमशः सम्पूर्ण (अर्थात्‌ पचीस) व्यूहोंकी पूजा

करे। यह क्रम तबतक चलता रहे, जबतक

छब्बीसवें तत्त्व - परमात्माका पूजन न सम्पन्न हो

जाय। इस विषयमें प्रचेताका मत यह है कि एक

ही मण्डलमें इन सम्पूर्ण कथित व्यूहोंका क्रमशः

पूजन-यज्ञ सम्पन्न होना चाहिये। परंतु 'सत्य'का

कथन है कि मूर्तिभेदसे भगवानके व्यक्तित्वमें भेद

हो जाता है; अतः सबका पृथक्‌-पृथक्‌ पूजन

करना उचित है। बयालीस कोष्ठवाले मण्डलको

आडी रेखाद्वारा क्रमशः विभक्त करे। पहले एक-

एकके सात भाग करे; फिर प्रत्येकके तीन-तीन

भाग और उसके भी दो-दो भाग करे। इस प्रकार

एक हजार सात सौ चौंसठ कोष्ठक बनेंगे। बीचके

सोलह कोष्टोंसे कमल बनावे। पार्श्भागमें वीथीकी

रचना करे। फिर आठ भद्र और वीथी बनावे।

तदनन्तर सोलह दलके कमल और वीथीका

निर्माण करे। तत्पश्चात्‌ क्रमशः चौबीस दलके

कमल, वीथी, बत्तीस दलके कमल, वीथी,

चालीस दलके कमल और वीथी बनावे | तदनन्तर

शेष तीन पंक्तियोंसे द्वार, शोभा ओर उपशोभाएँ

बनेंगी। सम्पूर्ण दिशाओंके मध्यभागमें द्वारसिद्धिके

लिये दो, चार और छः कोष्ठकॉको मिटावे।

उसके बाह्मभागमें शोभा तथा उपद्वारकी सिद्धिके

लिये पाँच, तीन और एक कोष्ठ मिटावे। द्वारोंके

पार्श्रभागोंमें भीतररकी ओर क्रमशः छः तथा चार

कोष्ठ मिटावे और बीचके दो-दो कोष्ठ लुप्त कर

दे। इस तरह छः उपशोभाएँ बन जायँगी। एक-

एक दिशामें चार-चार शोभाएँ और तीन-तीन

द्वार होंगे। कोणोंमें प्रत्येक पंक्तिके पाँच-पाँच

कोष्ठ छोड़ दे। वे कोण होंगे। इस तरह रचना

करनेपर सुन्दर अभीष्ट मण्डलका निर्माण होता

है॥ ३५--५० ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'सर्वतोभद्र आदि मण्डलके लक्षणका वर्णव” नामक

उन्तीसकाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २९ #

तीसवाँ अध्याय

भद्रमण्डल आदिकी पूजन-विधिका वर्णन

नारदजी कहते हैं--मुनिवरो! पूर्वोक्त | नैत्यकोणमें निर्क्रतिकी, पश्चिम दिशावाले कमलम

भद्रमण्डलके मध्यवर्ती कमलमें अङ्गोसहित ब्रह्मका | वरुणकी, बायव्यकोणमें वायुकी, उत्तर दिशाके

पूजन करना चाहिये। पूर्ववर्ती कमलमें भगवान्‌ | कमलमें आदित्यकी तथा ईशानकोणवाले कमलमें

पद्मनाभका, अग्निकोणवाले कमलमें प्रकृतिदेवीका | ऋ्वेद एवं यजुर्वेदका पूजन करे। द्वितीय आवरणमें

तथा दक्षिण दिशाके कमलमें पुरुषकी पूजा करनी | इन्द्र आदि दिक्‍्पालोंका और षोडशदलवाले

चाहिये। पुरुषके दक्षिण भागमें अग्निदेवताकी, | कमलमें क्रमशः सामवेद, अथर्ववेद, आकाश,

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