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क अग्निपुराण कै

कपासकी पत्तियोंकी भस्म, त्रिफला, गोलमिर्च,

खरेटी और हल्दी--इनका गोला बनाकर घावका

स्वेदन करे और इन ओषधियोंके तेलको घावपर

लगाये। दूधके साथ कुम्भीसार' (गुग्गुलसार)-को

आगपर जलाकर ब्रणपर लेप करे। (अथवा

गुग्गुलसारकों दूधमें मिलाकर आगसे जले हुए

ब्रणपर लेप करे।) अथवा जलकुम्भीको जलाकर

दूधमें मिलाकर लगानेसे सभी प्रकारके ब्रण

ठीक होते हैं। इसी प्रकार नारियलके जड़की

मिट्टीमें घृत मिलाकर सेक करनेसे ब्रणका नाश

होता है॥ २२--२७॥

सोंठ, अजमोद, सेंधानमक, इमलीकी छाल --

इन सबके समान भाग हररैंको तक्र या गरम जलके

साथ पीनेसे अतिसारका नाश होता है। इन्द्रयव,

अतीस, सोंठ, बेलगिरि और नागरमोथाका क्राथ

आमसहित जीर्ण अतिसारमें और शूलसहित

रक्तातिसारमें भी पिलाना चाहिये। ठंडे थूहरमें

सेंधानमक भरकर आगमे जला ले। फिर यथोचित

मात्रामें उदरशूलवालेको गरम जलके साथ दे।

अथवा सेंधानमक, हींग, पीपल, ह -इनका

गरम जलके साथ सेवन करावे ॥ २८--३० ॥

वरकी वरोह, कमल और धानकी खीलका

चूर्ण--इनकों शहदमें भिगोकर, कपड़ेमें पोटली

बनाकर, मुखमें रखकर उसे चूसे तो इससे

प्यास दूर होती है। अथवा कुटकी, पीपल,

मीठा कूट एवं धानका लावा मधुके साथ

मिलाकर, पोटलीमें रखकर मुँहमें रखे और

चूसे तो प्यास दूर हो जाती है। पाठा, दारुहल्दी,

चमेलीके पत्र, मुनक्काकी जड़ और त्रिफला-

इनका क्राथ बनाकर उसमें शहद मिला दे।

इसको मुखमें धारण करनेसे मुखपाक-रोग नष्ट

होता है। पीपल, अतीस, कुटकी, इन्द्रयव,

देवदारु, पाठा ओर नागरमोथा-इनका गोमूत्रमें

बना क्राथ मधुके साथ लेनेपर सब प्रकारके

कण्ठरोगोंका नाश होता है। ह, गोखरू, जवासा,

अमलतास एवं पाषाण-भेद-इनके क्लाथमें शहद

मिलाकर पीनेसे मूृत्रकृष्छूका कष्ट दूर होता

है। बाँसका छिलका और वरुणकी छालका

क्राथ शर्करा और अश्मरी-रोगका विनाश करता

है। श्लीपद-रोगसे युक्त मनुष्य शाखोटक

(सिंहोर) -कौ छालका क्राथ मधु और दुग्धके

साथ पान करे। उड़द, मदारकी पत्ती तथा

दूध, तैल, मोम एवं सैंधव लवण--इनका योग

पादरोगनाशक है। सोंठ, काला नमक और

हींग-इनका चूर्ण या सोंठके रसके साथ सिद्ध

किया घी अथवा इनका क्राथ पीनेसे मलबन्ध-

दोष और तत्सम्बन्धी रोग नष्ट होते हैं। गुल्मरोगी

सर्जक्षार, चित्रक, हीग ओर अजमोद-इनके

रसके साथ या विडंग एवं चित्रकके साथ

तक्रपान करे। आँवला, परवल ओर मूँग--

इनके क्राथका घृतके साथ सेवन विसर्परोगका

अपहरण करनेवाला है । अथवा सोंठ, देवदारु

और पुनर्नवा या बंशलोचन--इनका दुग्धयुक्त

क्राथ उपकारक है । गोमूत्रके साथ सोंठ, मिर्च,

पीपल, लोहचूर, यवक्षार तथा त्रिफलाका क्राथ

शोथ (सूजन) -को शान्त करता है। गुड़, सहिजन

* दो सौ तिरासी अध्यायके २७ यें श्लोकमें दो प्रकारके पठ सम्भव तथा युक्तियुक्त हैं -(१) क्ुम्भौसारं पयोयुक्तं वहिदग्धव्रणे

लिपेत्‌। (२) कुम्भीसारं पयोगुछं बहिदग्धे व्रणे लिपेत्‌। यहाँ 'कुम्भीसार' पदका अर्थ है--गुग्गुलका सार; क्योंकि ' वाचस्पत्यम्‌' कोषमें

औषधवर्गमें 'कुम्भी ' से गुग्युलका ग्रहण किया जाता है तथा " कुम्भं त्रिवृति गुग्गुली '--यह ' विश्वप्रकाश 'में भी मिलता है। मेरे गुल्देव

प्रादःस्मरणौय श्रीस़त्यनारायण शास्मीजौ अप्रिदग्धमें इस प्रकारका लेप बतलाया करते थे--राल, चूनेका पात्री, तीसीका तेल, धका

फूल -इनसे एक प्रकारका मलहम चाकरं अद्िदग्धपर लेप किया ऋय तो दाहप्रशमनके साथ-साथ आगे सफेद दाग होनेका भौ भय

नहीँ रहता तथा अग्रिदाहका दिखायी देता भी बंद हो जाता है।

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