दो सौ उनासीवाँ अध्याय:
सिद्ध ओषधियोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! अब मैं आयुर्वेदका | मसूर, चना, कुलथी, मोठ, अरहर, खेखशा, कायफर,
वर्णन करूँगा, जिसे भगवान् धन्वन्तरिने सुश्रुतसे
कहा था। यह आयुर्वेदका सार है और अपने
प्रयोगोंद्वारा मृतकको भी जीवन प्रदान करनेवाला
है॥१॥
सुश्रुततरे कहा--भगवन्! मुझे मनुष्य, घोड़े
और हाथीके रोगोंका नाश करनेवाले आयुर्वेद-
शास्त्रका उपदेश कीजिये। साथ ही सिद्ध योगों,
सिद्ध मन्त्रों ओर मृतसंजीवनकारक औषधोंका
भी वर्णन कौजिये॥ २॥
धन्वन्तरि बोले-- सुश्रुत! वैद्य ज्वराक्रान्त
व्यक्तिके बलकौ रक्षा करते हुए, अर्थात् उसके
बलपर ध्यान रखते हुए लङ्घनं (उपवास) करावे।
तदनन्तर उसे सोँठसे युक्त लाल मण्ड (धानके
लवेका माँड) तथा नागरमोधा, पित्तपापडा,
खस, लालचन्दन, सुगन्धबाला और सोँठके साथ
शृते (अर्धपक्व) जलको प्यास और ज्वरकी शान्तिके
लिये दे। छ:' दिन बीत जानेके बाद चिरायता-
जैसे द्रव्योका कादा अवश्य दे ॥ ३-४॥
ज्वर निकालनेके लिये (आवश्यकता हो तो)
जेहन (पसीना) करावे। रोगीके दोष (वातादि)
जब शान्त हो जायं, तब विरेचन-द्रव्य देकर
विरेचन कराना चाहिये । साठी, तिन्नी, लाल अगहनी
और प्रमोदक (धान्यविशेष)-के तथा ऐसे ही
अन्य धान्योकि भी पुराने चावल ज्वरमें ( ज्वरकालमें
मण्ड आदिके लिये) हितकर होते हैँ । यवके बने
(विना भूसीके) पदार्थं भी लाभदायक है । मुंग,
उत्तम फलके सहित परवल, नीमकौ छाल,
पित्तपापडा एवं अनार भी ज्वरे हितकारक
होते हैँ ॥ ५--७॥
रक्तपित्त नामक रोग यदि अधोग (नीचेकी
गतिवाला) हो तो वमन हितकर होता है तथा
ऊर्ध्वग (ऊपरकी ओर गतिवाला) हो तो विरेचन
लाभदायक होता है। इसमें बिना सोँटके
षडङ्गं (मुस्तपर्पटकोशीरचन्दनोदीच्य- नागरमोथा,
पित्तपापडा, खस, चन्दन एवं सुगन्धबाला) -से
बना क्राथ देना चाहिये । इस रोगमें (जौका) सत्त,
गेहूँका आटा, धानका लावा, जौके बने विभिन
पदार्थ, अगहनी धानका चावल, मसूर, मोठ, चना
और मूँग खानेयोग्य हैँ । घी एवं दूधसे तैयार किये
गये गेहूँके पदार्थ--दलिया, हलुवा आदि भी लाभकारी
होते हैँ । बलवर्धक रस तथा छोटी मक्खियोंका मधु
भी हितकर होता है। अतिसारे पुराना अगहनीका
चावल लाभदायक होता है ॥ ८-१०॥
गुल्मरोगमे जो अन कफकारक न हो तथा
पठानी लोधकी छालके क्लाथसे सिद्ध किया गया
हो, वही देना चाहिये। उस रोगे वायुकारक
अनको त्याग दे एवं वायुसे रोगीको बचाये।
रोगकों मिरानेके लिये यह प्रयत्न सर्वथा करनेयोग्य
है॥ ११॥
उदर-रोगमें दूधके साथ बारी खाय। घीसे
पकाया हुआ बथुवा, गेहूँ, अगहनी चावल तथा
तिक्त औषध उदर-रोगियोंके लिये हितकर हैं॥ १२॥
१. दो सौ उनासोयँ अध्यागसे वैद्यक अथवा आयुर्वेदका प्रकरण आरम्भ होता है। इसका संशोधन वाराणसेय संस्कृत वि वि०
याराणसी आयर्ेदविभागके प्राध्यापक आचार्य पं० श्रौगोमरौप्रसादजीने किया है। आप सुप्रसिद्ध आवुर्वेदधयत्तरि स्व० चं०
श्रीसत्यनारायणजों शास्त्रीके शिष्य हैं।
२. छः दिन उपलक्षणमात्र है । जक्तक ज्यरकों सामता (अपरिपक्रावस्था) रहे, तबतक प्रतीक्षा करके जब उसकी निशमता
(परिपक्रावस्था) हो जाय, तब तिक्तक (चिरायता आदि) दे।
362 अग्नि पुराण १९