* अध्याय २७१ * ५४७
77777. 33
और तेजका नाश करते है तथा जो मेरी कान्ति | जगह जनार्दन श्रीहरिका निवास हो । सबके पूजनीय,
या तेजको विलुप्त करनेवाले हैं, जो उपभोग- | मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले अनन्तरूप परमेश्वर
सामग्रीको हर लेनेवाले तथा शुभ लक्षर्णोका नाश | जनार्दनके चरणे प्रणत होनेवाला कभी दुखी
करनेवाले हैं, वे कृष्माण्डगण श्रीविष्णुके सुदर्शन- | नहीं होता । जैसे भगवान् श्रीहरि परब्रह्म है, उसी
चक्रके वेगसे आहत होकर विनष्ट हो जायं । | प्रकार वे परमात्मा केशव भी जगतूस्वरूप हैं--
देवाधिदेव भगवान् वासुदेवके संकीर्तनसे मेरी बुद्धि, | इस सत्यक प्रभावसे तथा भगवान् अच्युतके
मन और इन्द्रियोंको स्वास्थ्यलाभ हो । मेरे आगे- | नामकौर्तनसे मेरे त्रिविध पापोंका नाश हो
पीछे, दार्ये -बाये तथा कोणवर्तिनी दिशाओंमें सब | जाय '* ॥ ९--१५॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापराणमे “ विष्णुपञ्जरस्तोत्रका कथन” नामक
दो सौ सत्तरवां अध्याय पूरा हुआ॥ २७० ॥
शमन
दो सौ एकहत्तरवाँ अध्याय
वेदोके मन्त्र और शाखा आदिका वर्णन तथा वेदोँकी महिमा
पुष्कर कहते हैं-- परशुराम ! वेदमन्त्र सम्पूर्ण ओर दूसरी शाखा * आश्वलायन" है। इन दो
विश्वपर अनुग्रह करनेवाले तथा चारों पुरुषार्थोकि | शाखाओंमें एक सहस्र तथा ऋ्वेदीय ब्राह्मणभागमें
साधक हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा | दो सहस्र मन्त्र है । श्रीकृष्णद्रैपायन आदि महर्षियोनि
अथर्ववेद - ये चार वेद है । इनके मन्त्रोंकी संख्या | ऋग्वेदको प्रमाण माना है । यजुर्वेदे उननीस सौ
एक लाख है। ऋग्वेदकी एक शाखा “ सांख्यायन ' | मन्त्र हैँ । उसके ब्राह्मण-प्रन्थोंमें एक हजार मन्त्र
* श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्र
चुष्कर उवाच --
जल्नुषः पूवं अऋछाण विष्णुपजजसम्। शेकरस्य द्विजत्रे्ट रक्षणाय निरूपितम् ॥
शक्रस्य कलं हन्तु फ्रयास्वत: | तस्य स्वरूपं यक्ष्यामि ता त्व॑ शृणु जयादिमत्॥
प्राच्यां स्थितश्चक्री हहरिर्दध्िलतो गदी । प्रतीच्यां शाङ्गधृग् विण्णुिष्णुः खड़ी ममोत्तरे ४
हृषीकेशो विकोणेषु रच्छद्रेषु जनार्दनः । क्रोडकूपौो हपिरभूमौ नरसिंहोऽप्यो मम
क्षुरान्तममलं छम प्रमत्येतत् सुदर्शनम् । अस्यांशुमाला दुष्प्रेक्या हन्तुं प्रेतनिशाचसन् ॥
चैव
। ते यान्तु शाम्यतां सद्यो गरुड़ेनेव पलगा:॥
ये निशाचराः | प्रेता विनायकाः क्रूरा मनुष्या जम्भगाः खगाः ॥
सिंहादयश्च परयो दंदशूकाश्च पत्कगाः। सर्वे भवन्तु ते सौम्याः कृष्णशद्गुरवाहता:॥
चित्तवृत्तिहरा ये मे ये जनाः स्मृतिहारकाः । क्लौजखं च हर्तारश्छायाविधभ्रंशकाक्ष. ये॥
74
(
(अग्रिषु० २७०। १--१५)