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“हे वर्म! तुम रणभूमिमें कल्याणप्रद हो । आज

मेरी सेनाको यश प्राप्त हो । निष्पाप! मैं तुम्हारे

द्वारा रक्षा पानेके योग्य हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हें

नमस्कार है'॥ ३४॥

दुन्दुभि-प्रार्थना-मन्त्र

"दुन्दुभे! तुम अपने घोषसे शत्रुओंका हृदय

कम्पित करनेवाली हो; हमारे राजाकी सेनाओंके

लिये विजयवर्धक बन जाओ। मोददायक दुन्दुभे !

जैसे मेघकी गर्जनासे श्रेष्ठ हाथी हर्षितः होते हैं,

& «७ 2.

वैसे ही तुम्हारे शब्दसे हमारा हर्ष बहे ।

प्रकार मेघकी गर्जना सुनकर स्त्रियाँ भयभीत हो

जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारे नादसे युद्धमें उपस्थित

हमारे शत्रु त्रस्त हो उठे ' ॥ ३५--३७॥

इस प्रकार पूर्वोक्त मन्त्रोंसे राजोपकरणोंकी

अर्चना करे एवं विजयकार्यमें उनका प्रयोग

करे। दैवज्ञ राजपुरोहितको रक्षाबन्धन आदिके

द्वारा राजाकी रक्षाका प्रबन्ध करके प्रतिवर्ष विष्णु

आदि देवताओं एवं राजाका अभिषेक करना

चाहिये॥ ३८-३९ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुद्णणर्में 'छत्र आदिको प्रार्थनाके मनत्रका कथन” नामक

दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय यूरा हुआ॥ २६९॥

पक 0

दो सौ सत्तरवाँ अध्याय

विष्णुपञ्जरस्तोत्रका कथन

पुष्कर कहते हैं-- द्विजश्रेष्ठ परशुराम ! पर्वकाले | | है, उस समय इसकी किरणोंकी ओर देखना

भगवान्‌ ब्रह्मने त्रिपुरसंहारके लिये उद्यत शंकरकी

रक्षाके लिये " विष्णुपञ्जर' नामक स्तोत्रका उपदेश

किया था। इसी प्रकार वृहस्पतिने बल दैत्यका

वध करनेके लिये जानेवाले इन्द्रकी रक्षाके लिये

उक्त स्तोत्रका उपदेश दिया था। मैं विजय प्रदान

करनेवाले उस विष्णुपञ्जरका स्वरूप बतलाता हूँ,

सुनो॥ १-२॥

"मेरे पूर्वभागे चक्रधारी विष्णु एवं दक्षिणपार्श्वे

गदाधारी श्रीहरि स्थित है । पश्चिमभागे शार्ड्रपाणि

विष्णु और उत्तरभागमें नन्दक- खद्गधारी जनार्दन

विराजमान है । भगवान्‌ हषीकेश दिक्कोर्णोमें एवं

जनार्दन मध्यवर्ती अवकाशे मेरी रक्षा कर रहे

है । वराहरूपधारी श्रीहरि भूमिपर तथा भगवान्‌

नृसिंह आकाशे प्रतिष्ठित होकर मेरा संरक्षण कर

रहे हैं। जिसके किनारेके भागोंमें छुरे जुड़े हुए हैं,

वह यह निर्मल 'सुदर्शनचक्र' घूम रहा है। यह

जब प्रेतों तथा निशाचरोंको मारनेके लिये चलता

किसौके लिये भी बहुत कठिन होता है। भगवान्‌

श्रीहरिकी यह “कौमोदकी ' गदा सहस्नों ज्वालाओंसे

प्रदीप्त पावकके समान उज्ज्वल है। यह राक्षस,

भूत, पिशाच और डाकिनि्योका विनाश करनेवाली

है। भगवान्‌ वासुदेवके शार्ड्रधनुषको टंकार मेरे

शत्रुभूत मनुष्य, कूष्माण्ड, प्रेत आदि और

तिर्यग्योनिगतं जीवोंका पूर्णतया संहार करे। जो

भगवान्‌ श्रीहरिकी खड्गधारामयी उज्वल ज्योत््ामे

सान कर चुके हैं, वे मैरे समस्त शत्रु उसी प्रकार

तत्काल शान्त हो जायं, जैसे गरुडके द्वारा मारे

गये सर्प शान्त हो जाते है" ॥ ३--८॥

“जो कूष्माण्ड, यक्ष, राक्षस, प्रेत, विनायक,

क्रूर मनुष्य, शिकारी पक्षी, सिंह आदि पशु एवं

ङंसनेवाले सर्प हों, वे सब-के-सब

सच्विदानन्दस्वरूप श्रीकृष्णके शङ्खनादसे आहत

हो सौम्यभावको प्राप्त हो जायं । जो मेरी चित्तवृत्ति

और स्मरणशक्तिका हरण करते हैं, जो मेरे बल

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