देजडकक कक रूूरेके कक कतक>ऋ ~
दिन वाहनोंकों विशेषरूपसे अलंकृत करना चाहिये। | पीठपर स्थित रहकर विधिपूर्वक बलि-वितरण
राजचिह्ोंकी पूजा करके उन्हें उनके अधिकृत | करे। फिर नरेश सुस्थिरचित्त होकर चतुरब्लिणी
पुरुषोंके हाथोंमें दे। धर्मज्ञ परशुराम! फिर कालज्ञ
ज्यौतिषी हाथी, अश्च, छत्र, खङ्ग, धनुष, दुन्दुभि,
ध्वजा एवं पताका आदि राजचिह्लोंकों अभिमन्त्रित
करे! फिर उन सबको अभिमन्त्रित करके
हाथीकी पीटपर रखे । ज्योतिषी ओर पुरोहित भी
हाथीपर आरूढ़ हों। इस प्रकार अभिमन्त्रित वाहनोंपर
आरूढ़ होकर तोरण-द्वारसे निष्क्रमण करें। इस
प्रकार राजद्रारसे बाहर निकलकर राजा हाथीकी
सेनाके साथ सर्वसैन्यसमूहके द्वारा जयघोष कराते
हुए दिग्दिगन्तको प्रकाशित करनेवाले जलते
मसालोंके समूहकी तीन बार परिक्रमा करे। इस
प्रकार पूजन करके राजा जनसाधारणको विदा
करके राजभवनकों प्रस्थान करे । मैंने यह समस्त
शत्रुओंका विनाश करनेवाली “नीराजना' नामक
शान्ति बतलायी है, जो राजाको अभ्युदय प्रदान
करनेवाली है ॥ १६--३१॥
इस एकार आदि आग्रेव महापुराणमें नीराजनाविधिका वर्णन” नामक
दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हज ॥ २६८ ॥
००८२०१०
दो सौ उनहत्तरवां अध्याय
छत्र, अश्च, ध्वजा, गज, पताका, खड़, कवच और दुन्दुभिकी प्रार्थनाके मन्त्र
पुष्कर कहते हैं-- परशुराम ! अब मैं छत्र
आदि राजोपकरणेकि प्रार्थनामन्त्र बतलाता हूँ, जिनसे
उनकी पूजा करके नेशगण विजय आदि प्राप्त
करते हैं॥ ३॥
त्र-प्रार्थना-मन्त्र
"महामते छत्रदेव ! तुम हिम, कुन्द एवं चन्द्रमाके
समान चैत कान्तिसे सुशोभित ओर पाण्डुर-वर्णकी-
सी आभावाले हो । ब्रह्माजीके सत्यवचन तथा
चन्र, वरुण और सूर्यके प्रभावसे तुम सतत वृद्धिशील
होओ। जिस प्रकार मेघ मङ्गलके लिये इस पृथ्वीको
आच्छादित करता है, उसी प्रकार तुम विजय एवं
आरोग्यकी वृद्धिके लिये जाको आच्छादित
करो'॥ १--२॥
अश्व-प्रार्थना-मन्त्र
"अश्च! तुम गन्धर्वकुलमें उत्पन्न हुए हो, अतः
अपने कुलको दूषित करनेवाला न होना। ब्रह्माजीके
सत्यवचनसे तथा सोम, वरुण एवं अग्रिदेवके
प्रभावसे, सूर्यके तेजसे, मुनिवरोंके तपसे, रुद्रके
ब्रह्मचर्यसे और वायुके बलसे तुम सदा आगे
बढ़ते रहो। याद रखो, तुम अश्वराज उच्चैःश्रवाके
पुत्र हो; अपने साथ हौ प्रकट हुए कौस्तुभरत्रका
स्मरण करो। (तुम्हें भी उसीकी भाँति अपने
यशसे प्रकाशित होते रहना चाहिये।) ब्रह्मघाती,
पितृघाती, मातृहन्ता, भूमिके लिये मिथ्याभाषण
करनेवाला तथा युद्धसे पराङ्मुख क्षत्रिय जितनी
शीघ्रतासे अधोगतिको प्राप्त होता है, तुम भी
युद्धसे पीठ दिखानेपर उसी दुर्गतिको प्राप्त हो
सकते हो; किंतु तुम्हें वैला पाप या कलङ्क न
लगे। तुरंगम! तुम युद्धके पथपर विकारको न
प्राप्त होना। समराद्भुणमें शत्रुओंका विनाश
करते हुए अपने स्वामीके साथ तुम सुखी
होओ ' ॥ ४--८ ३ ॥
ध्वजा-प्रार्थना-मन्त्र
“महापराक्रमके प्रतीक इन्द्रध्वज! भगवान्
नारायणके ध्वज विनतानन्दन पक्षिराज गरुड तुममें
प्रतिष्ठित हैं। वे सर्पशत्रु, विष्णुवाहन, कश्यपनन्दन