शान्ति करावे। अतिवृष्टि ओर अनावृष्टि-दोनों | योग्य पशु यानका वहन नहीं करते हैं एवं आकाशमें
ही दुर्भिक्षाका कारण मानी गयी हैं। वर्षा-ऋतुके | तूर्यनाद होने लगता है, उस समय महान् भय
सिवा अन्य ऋतुओंमें तीन दिनतक अनवरत वृष्टि
होनेपर उसे भयजनक जानना चाहिये। पर्जन्य,
चन्द्रमा एवं सूर्यके पूजनसे वृष्टि-सम्बन्धी वैकृत्य
(उपद्रव) -का विनाश होता है। जिस नगरसे नदियाँ
दूर हट जाती हैं या अत्यधिक समीप चली आती
हैं और जिसके सरोवर एवं झरने सूख जाते हैं,
वहाँ जलाशयोंके इस विकारको दूर करनेके लिये
वरुणदेवता-सम्बन्धी मन्त्रका जप करना चाहिये।
जहाँ स्त्रियाँ असमयमें प्रसव करें, समयपर प्रसव
न करें, विकृत गर्भको जन्म दें या युग्म-संतान
आदि उत्पन्न करें, वहाँ स्त्रियोंके प्रसव-सम्बन्धी
वैकृत्यके निवारणार्थं साध्वी स्त्रियों और ब्राह्मण
आदिका पूजन करे॥ १७-- २२ \ ॥
जहाँ घोड़ी, हथिनी या गौ एक साथ दो
बच्चोंको जनती हैं या विकारयुक्त विजातीय संतानको
जन्म देती हैं, छः महीनोकि भीतर प्राणत्याग कर
देती हैं अथवा विकृत गर्भका प्रसव करती हैं,
उस राष्ट्रको शत्रुमण्डलसे भय होता दै । पशुओंके
इस प्रसव -सम्बन्धी उत्पातकी शान्तिके उद्देश्यसे
होम, जप एवं ब्राह्मणोका पूजन करना चाहिये ।
जब अयोग्य पशु सवारीमें आकर जुत जाते हैं,
उपस्थित होता है । जब वन्यपशु एवं पक्षी ग्राममें
चले जाते हैं, ग्राम्यपशु बनमें चले जाते है, स्थलचर
जीव जलम प्रवेश करते हैं, जलचर जीव स्थलपर
चले जाते हैं, राजद्वारपर गीदड़ियाँ आ जाती हैं,
मुर्गे प्रदोषकालमें शब्द करें, सूर्योदयके समय
गीदड़ियाँ रुदन करें, कबूतर घरमें घुस आवें,
मांसभोजी पक्षी सिरपर मँडराने लगें, साधारण
मक्खी मधु बनाने लगें, कौए सबकी आँखोंके
सामने मैथुनमें प्रवृत्त हो जायें, दृढ़ प्रासाद, तोरण,
उद्यान, द्वार, परकोटा और भवन अकारण ही
गिरने लगें, तब राजाकी मृत्यु होती है। जहाँ
धूल या धुएँसे दशों दिशाएँ भर जायं, केतुका
उदय, ग्रहण, सूर्य और चन्द्रमामें छिद्र प्रकट
होना-ये सब ग्रहों और नक्षत्रोंके विकार हैं।
ये विकार जहाँ प्रकट होते हैं, वहाँ भयकी
सूचना देते हैं। जहाँ अग्नि प्रदीप्त न हो,
जलसे भरे हुए घड़े अकारण ही चूने लगें तो इन
उत्पातोंके फल मृत्यु, भय और महामारी आदि
होते हैं। ब्राह्मणों और देवताओंकी पूजासे
तथा जप एवं होमसे इन उत्पातोंकी शान्ति होती
है॥ २३--३३॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें “उत्फात- शान्तिका कथन नामक
दो सौ विरसठयाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २६३ ॥
न+
दो सौ चौसठवाँ अध्याय
देवपूजा तथा वैश्वदेव-बलि आदिका वर्णन
पुष्कर कहते हैं-- परशुराम ! अब मैं देवपूजा | 'हिरण्यवर्णा०' (ऋकु०प० ११।११।१-३) आदि
आदि कर्मका वर्णन करूँगा, जो उत्पातोको शान्त | तीन मन्त्रोंसे पाद्य समर्पित करे । “शं नो आपः०"-
करनेवाला है। मनुष्य स्नान करके "आपो हि | इस मन्त्रसे आचमन एवं “इदमापः०' (यजु
छार ' (यजु० ३६। १४-१६) आदि तीन मन्त्रे | ६। १७) मन्त्रसे अभिषेक अर्पण करे । "रथे०,
भगवान् श्रीविष्णुको अर्घ्यं समर्पित करे । फिर | अक्षेषु, एवं चतस्त्र: -- इन तीन मन्त्रोंस भगवानके