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चाहिये। यदि वे दोनों मना करनेके बाद भी

सम्भाषण करते पाये जाये तो उन्हें व्यभिचारका

दण्ड देना चाहिये। पशुके साथ मैथुन करनेवालेपर

सौ पण तथा नीचजातिकी स्त्री या गौसे समागम

करनेवालेपर पाँच सौ पणका दण्ड करे। किसीकी

अवरुद्धा (खरीदी हुई) दासी तथा रखेल स्त्रीके

साथ उसके समागमके योग्य होनेपर भी समागम

करनेवाले पुरुषपर पचास पणका दण्ड लगाना

चाहिये। दासीके साथ बलात्कार करनेवालेके लिये

दस पणका विधान है। चाण्डाली या संन्यासिनीसे

समागम करनेवाले मनुष्यके ललाटमें 'भग'का

चिह् अङ्कित करके उसे देशसे निर्वासित कर

दे ॥ ६८-७३॥

प्रकीर्णक-प्रकरण

जो मनुष्य राजाज्ञाको न्यूनाधिक करके लिखता

है, अथवा व्यभिचारी या चोरको छोड़ देता है,

राजा उसे उत्तम साहसका दण्ड दे । ब्राह्मणको

अभक्ष्य पदार्थका भोजन कराके दूषितं करनेवाला

उत्तम साहसके दण्डका भागी होता है। कृत्रिम

स्वर्णका व्यवहार करनेवाले तथा मांस बेचनेवालेको

एक हजार पणका दण्ड दे और उसे नाक, कान

और हाथ--इन तीन अङ्खोसे हीन कर दे। यदि

पशुओंका स्वामी समर्थ होते हुए भी अपने दाढ़ों

और सींगोंवाले पशुओंसे मारे जाते हुए मनुष्यको

छुड़ाता नहीं है तो उसको प्रथम साहसका दण्ड

दिया जाना चाहिये। यदि पशुके आक्रमणका शिकार

होनेबाला मनुष्य जोर-जोरसे चिल्लाकर पुकारे

कि “अरे! मैं मारा गया। मुझे बचाओ', उस

दशामें भी यदि पशुओंका स्वामी उसके प्राण नहीं

बचाता तो वह दूने दण्डका भागी होता है। जो

अपने कुलमें कलङ्क लगनेके डरसे घरमे घुसे हुए

जार (परस्त्रीलम्पट)-को चोर बताता है, अर्थात्‌

"चोर-चोर' कहकर निकालता है, उसपर पाँच

सौ पण दण्ड लगाना चाहिये। जो राजाको प्रिय

न लगनेवाली बात बोलता है, राजाकी हौ निन्दा

करता है तथा राजाकी गुप्त मन्त्रणाका भेदन

करता --शत्रुपक्षेके कानोंतक पहुँचा देता है, उस

मनुष्यकी जीभ काटकर उसे राज्यसे निकाल देना

चाहिये। मृतकके अज्जसे उतारे गये वस्त्र आदिका

विक्रय करनेवाले, गुरुकी ताड़ना करनेवाले तथा

राजाकी सवारी और आसनपर बैठनेबालेको राजा

उत्तम साहसका दण्ड दे। जो क्रोधमें आकर

किसीकी दोनों आँखें फोड़ देता है, उस अपराधीको,

जो राजाके अनन्य हितचिन्तकोंमें न होते हुए भी

राजाके लिये अनिष्टसूचक फलादेश करता है,

उस ज्यौतिषीको तथा जो ब्राह्मण बनकर जीविका

चला रहा हो, उस शूद्रको आठ सौ पणके दण्डसे

दण्डित करना चाहिये। जो मनुष्य न्यायसे पराजित

होनेपर भी अपनी पराजय न मानकर पुनः न्यायके

लिये उपस्थित होता है, उसको धर्मपूर्वक पुनः

जीतकर उसके ऊपर दुगुना दण्ड लगावे। राजाने

अन्यायपूर्वक जो अर्थदण्ड लिया हो, उसे तीसगुना

करके वरुणदेवताकों निवेदन करनेके पश्चात्‌ स्वयं

ब्राह्मणोंको बाँट दे। जो राजा धर्मपूर्वक व्यवहारोंको

देखता है, उसे धर्म, अर्थ, कीर्ति, लोकपंक्ति,

उपग्रह (अर्थसंग्रह), प्रजाओंसे बहुत अधिक सम्मान

और स्वर्गलोकमें सनातन स्थान -ये सात गुण

प्राप्त होते है ॥ ७४ --८३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें "वाक्यारष्यादि प्रकरणोका कथन” नामक

दो सौ अद्ञावनवाँ अध्याय पूद्र हुआ॥ २५८ ॥

न अमर की

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