न दे, उससे वृद्धिसहित वह माल ग्राहकको दिलाया
जाय। यदि ग्राहक परदेशका हो तो उसके देशमें
ले जाकर बेचनेसे जो लाभ होता है, उस लाभसहित
वह वस्तु राजा व्यापारीसे ग्राहकको दिलावे। यदि
पहला ग्राहक मालमें किसी प्रकार संदेह होनेपर
वस्तुको न लेना चाहे तो व्यापारी उस बेची हुई
वस्तुको भी दूसरेके हाथ बेच सकता है। यदि
विक्रेताके देनेपर भी ग्राहक न ले और वह
पण्यवस्तु राजा या दैवकी बाधासे नष्ट हो जाय
तो वह हानि क्रेताके ही दोषसे होनेके कारण
वही उस हानिको सहन करेगा, बेचनेवाला नहीं।
यदि ग्राहकके माँगनेपर भी उस बेची हुई पण्यवस्तुको
बेचनेवाला नहीं दे और वह पण्यद्रव्य राजा या
दैवके कोपसे उपहत हो जाय तो वह हानि
विक्रेताकी होगी ॥ ४४--४६ ॥
जो व्यापारी किसीको बेची हुई वस्तु दूसरेके
हाथ बेचता है, अथवा दूषित वस्तुको दोषरहित
बतलाकर बेचता है, राजा उसपर वस्तुके मूल्यसे
दुगुना अर्थदण्ड लगाबे। जान-बूझकर खरीदे हुए
पण्यद्रव्योका मूल्य खरीदनेके बाद यदि बढ़ गया
या घट गया तो उससे होनेवाले लाभ या हानिको
जो ग्राहक नहीं जानता, उसे 'अनुशय' (माल
लेनेमें आनाकानी) नहीं करनी चाहिये। विक्रेता
भी यदि बढ़े हुए दामके कारण अपनेको लगे हुए
घाटेको नहीं जान पाया है तो उसे भी माल देनेमें
आनाकानी नहीं करनी चाहिये। इससे यह बात
स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि खरीद-बिक्रोके
पश्चात् यदि ग्राहककों घाटा दिखायी दे तो वह
माल लेनेमें आपत्ति कर सकता है। इसी तरह
विक्रेता उस भावपर माल देनेमें यदि हानि देखे
तो वह उस मालको रोक सकता है। यदि अनुशय
न करनेकी स्थितिमें क्रेता या विक्रेता अनुशय करें
तो उनपर पण्यवस्तुके मूल्यका छटा अंश दण्ड
लगाना चाहिये॥ ४७-४८ ॥
सम्भूयसमुत्थान
जो व्यापारी सम्मिलित होकर लाभके लिये
व्यापार करते हैं, वे अपने नियोजित धनके अनुसार
अथवा पहलेके समझौतेके अनुसार लाभ-हानिमें
भाग ग्रहण करें। यदि उनमें कोई अपने साझीदारोंके
मना करनेपर या उनके अनुमति न देनेपर, अथवा
प्रमादवश किसी वस्तु हानि करेगा, तो क्षतिपूर्ति
उसे ही करनी होगी। यदि उनमेंसे कोई पण्यद्रव्यकी
विप्लवोंसे रक्षा करेगा तो वह दशमांश लाभका
भागी होगा॥ ४९-५०॥
पण्यद्रव्योका मूल्य निश्चित करनेके कारण
राजा मूल्यका बीसवाँ भाग अपने शुल्कके रूपमें
ग्रहण करे । यदि कोई व्यापारी राजाके द्वारा निषिद्ध
एवं राजोपयोगी वस्तुको लाभके लोभसे किसी
दूसरेके हाथ बेचता है तो राजा उससे वह वस्तु
बिना मूल्य दिये ले सकता है। जो मनुष्य
शुल्कस्थानमें वस्तुका मिथ्या परिमाण बतलाता
है, अथवा वहसे खिसक जानेकी चेष्टा करता है
तथा जो कोई बहाना बनाकर किसी विवादास्पद
वस्तुका क्रय-विक्रय करता है--इन सबपर
पण्यवस्तुके मूल्यसे आठगुना दण्ड लगाना चाहिये।
यदि संघबद्ध होकर काम करनेवालोंमेंसे कोई
देशान्तरमें जाकर मृत्युको प्राप्त हो जाय तो उसके
हिस्सेके द्रव्यको दायाद (पुत्र आदि), बान्धव
(मातुल आदि) अथवा ज्ञाति (सजातीय- सपिण्ड)
आकर ले लें । उनके न होनेपर उस धनको राजा
ग्रहण करे । संघवद्ध होकर काम करनेवालोंमें जो
कुटिल या वञ्चक हो, उसे किसी तरहका लाभ
दिये बिना ही संघसे बाहर कर दे। उनमेंसे जो
अपना कार्य स्वयं करनेमे असमर्थं हो, वह दूसरेसे
करावे। होता आदि ऋत्विजो, किसानों तथा
शिल्पकर्मोपजीवी नट, नर्तकादिकोकि लिये भी
रहन-सहनका ढंग उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट कर
दिया गया ॥ ५१-५४॥