लगेगा तथा परायी स्त्री एवं उच्चजातिवालेको
अधमके द्वारा गाली दी गयी हो तो उसके ऊपर
पूर्वोक्त दण्ड दुगुना लगाया जाय। वर्ण और जातिकी
लघुता और श्रेष्ठातकों देखकर राजा दण्डकी व्यवस्था
करे। वर्णोकि ' प्रातिलोम्यापवाद'में अर्थात् निम्नवर्णके
पुरुषद्वारा उच्चवर्णके पुरुषपर आक्षेप किये जानेपर
दुगुने और तिगुने दण्डका विधान है। जैसे ब्राह्मणको
कटुवचन सुनानेवाले क्षत्रियपर पूर्वोक्त द्विगुण दण्ड,
पचास पणसे दुगुने दण्ड सौ पण, लगाये जाने
चाहिये तथा वही अपराध करनेवाले वैश्यपर
तिगुने, अर्थात् डेढ़ सौ पण दण्ड लगने चाहिये।
इसी तरह 'आनुलोम्यापवाद 'में, अर्थात् उच्चवर्णद्वारा
हीनवर्णके मनुष्यपर आक्षेप किये जानेपर क्रमशः
आधे-आधे दण्डकी कमी हो जाती है। अर्थात्
ब्राह्मण क्षत्रियपर आक्रोश करे तो पचास पण
दण्ड दे, बैश्यपर करे तो पच्चौस पण और यदि
शूद्रपर करे तो साढ़े बारह पण दण्ड दे। यदि
कोई मनुष्य वाणीद्वारा दूसरोंको इस प्रकार धमकावे
कि भै तुम्हारी बह उखाड़ लूँगा, गर्दन मरोड़
दूँगा, आँखें फोड़ दूँगा और जाँघ तोड़ डालूँगा'
तो राजा उसपर सौ पणका दण्ड लगावे और जो
पैर, नाक, कान और हाथ आदि तोड़नेकों कहे,
उसपर पचास पणका अर्थदण्ड लागू करे। यदि
असमर्थ मनुष्य ऐसा कहे, तो राजा उसपर दस
पण दण्ड लगाबे और समर्थ मनुष्य असमर्थको
ऐसा कहे, तो उससे पूर्वोक्त सौ पण दण्ड वसूल
करे। साथ ही असमर्थ मनुष्यकी रक्षाके लिये
उससे कोई "प्रतिभू" (जमानतदार) भी माँगे।
किसीको पतित सिद्ध करनेके लिये आक्षेप करनेवाले
मनुष्यको मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये तथा
उपपातकका मिथ्या आरोप करनेवालेपर प्रथम
साहसका दण्ड लगाना चाहिये। वेदविद्या-सम्पन्न
ब्राह्मण, राजा अथवा देवताकी निन्दा करनेवालोंको
उत्तम साहस, जातियोकि सङ्घकी निन्दा करनेबालेको
मध्यम साहस और ग्राम या देशकौ निन्दा
करनेवालेको प्रथम साहसका दण्ड देना
चाहिये ॥ २--८ ॥
दण्डपारुष्य
[अब *दण्डपारुष्य' प्रस्तुत किया जाता है।
नारदजीके कथनानुसार उसका स्वरूप इस प्रकार
है -'' दूसरोकि शरीरपर, अथवा उसकी स्थावर
जङ्गम वस्तुओंपर हाथ, पैर, अस्त्र-शस्त्र तथा
पत्थर आदिसे जो चोट पहुँचायी जाती है तथा
राख, धूल और मल-मूत्र आदि फैककर उसके
मनमें दुःख उत्पन्न किया जाता है, यह दोनों ही
प्रकारका व्यवहार 'दण्डपारुष्य' कहलाता है।'”
उसके तीन कारण बताये जाते हैं--'अवगोरण'
(मारनेके लिये उद्योग), “निःसड्भपातन'
(निष्ठुरतापूर्वक नीचे गिरा देना) और ' क्षतदर्शन '
(रक्त निकाल देना) । इन तीनोंके द्वारा हीन द्रव्यपर,
मध्यम द्रव्यपर और उत्तम द्रव्यपर जो आक्रमण
होता है, उसको दृष्टिमें रखकर “दण्डपारुष्य 'के
तीन भेद किये जाते हैं। “दण्डपारुष्य'का निर्णय
करके उसके लिये अपराधीको दण्ड दिया जाता
है। उसके स्वरूपमें संदेह होनेपर निर्णयके कारण
बता रहे हैं-]
यदि कोई मनुष्य राजाके पास आकर इस
आशयका अभियोगपत्र दे कि अमुक व्यक्तिने
एकान्त स्थानमें मुझे मारा है", तो राजा इस
कार्यमें चिह्रोंसे, युक्तियोंसे, आशय (जनप्रवादसे )
तथा दिव्य-प्रमाणसे निश्चय करे। “अभियोग
लगानेवालेने अपने शरीरपर घावका कपटपूर्बक
चिह् तो नहीं बना लिया है! इस संदेहके कारण
उसका परीक्षण (छानबीन) आवश्यक है। दूसरेके
ऊपर राख, कीचड़ या धूल फेंकनेवालेपर दस
पण और अपवित्र वस्तु या थूक डालनेवाले,
अथवा अपने पैरकी एड़ी छुआ देनेवालेपर राजा
बीस पण दण्ड लगाये। यह दण्ड समान वर्णवालोंके
प्रति ऐसा अपराध करनेवालोंके लिये ही बताया
गया है। परायी स्त्रियों और अपनेसे उत्तम वर्णवाले