Home
← पिछला
अगला →

उपलक्षण है। अर्थात्‌ यदि कोई दूसरेकी रखी हुई

वस्तु उसे बताये बिना दूसरेके यहाँ रख दे या

दूसरेको दे दे तो उसपर यदि स्वामीकी दृष्टि पड़

जाय तो स्वामी उस वस्तुको हठात्‌ ले ले या

अपने अधिकारमें कर ले; क्योंकि उस वस्तुसे

उसका स्वामित्व निवृत्त नहीं हुआ। यदि खरीददार

उस वस्तुको खरीदकर छिपाये रखे, किसीपर

प्रकट न करे तो उसका अपराध माना जाता है।

तथा जो हीन पुरुष है, अर्थात्‌ उस द्रव्यकी प्राप्तिके

उपायसे रहित है, उससे एकान्ते कम मूल्यमें

और असमयमें (रात्रि आदिमें) उस वस्तुको

खरीदनेवाला मनुष्य चोर होता है, अर्थात्‌ चोरके

समान दण्डनीय होता है। अपनी खोयी हुई या

चोरीमें गयी हुई वस्तु जिसके पास देखे, उसे

स्थानपाल आदि राजकर्मचारीसे पकड्वा दे। यदि

उस स्थान अथवा समयमें राजकर्मचारी न मिले

तो चोरको स्वयं पकड़कर राजकर्मचारीको सौंप

दे। यदि खरीददार यह कहे कि “मैंने चोरी नहीं

की है, अमुकसे खरीदी है', तो वह बेचनेवालेको

पकड़वा देनेपर शुद्ध (अभियोगसे मुक्त) हो जाता

है। जो नष्ट या अपहत वस्तुका विक्रेता है, उसके

पाससे द्रव्यका स्वामी द्रव्य, राजा अर्थदण्ड और

खरीदनेवाला अपना दिया हुआ मूल्य पाता है।

वस्तुका स्वामी लेख्य आदि आगम या उपभोगका

प्रमाण देकर खोयी हुई वस्तुको अपनी सिद्ध

करे। सिद्ध न करनेपर राजा उससे वस्तुका पञ्चमांश

दण्डके रूपमे ग्रहण करे। जो मनुष्य अपनी खोयौ

हुई अथवा चुरावी गयी वस्तुको राजाको चिना

बतलाये दूसरेसे ले ले, राजा उसपर छानबे पणका

अर्थदण्ड लगावे। शौल्किक ( शुल्कके अधिकारी )

या स्थानपाल (स्थानरक्षक) जिस खोये अथवा

चुराये गये द्रव्यको राजाके पास लाये, उस द्रव्यको

एक वर्षके पूर्व ही वस्तुका स्वामी प्रमाण देकर

प्राप्त कर ले; एक वर्धके बाद राजा स्वयं उसे ले

ले। घोड़े आदि एक खुरवाले पशु खोनेके वाद

मिलें, तो स्वामी उनकी रक्षाके निमित्त चार पण

राजाको दे; मनुष्यजातीय द्रव्यके मिलनेपर पाँच

पणः; भैंस, ऊँट और गौके प्राप्त होनेपर दो-दो

पण तथा भेड्‌-बकरीके मिलनेपर पणका चतुर्थांश

राजाको अर्पित करे ॥ १९--२५॥

दत्ताप्रदानिक

('दत्ताप्रदानिक 'का स्वरूप नारदने इस प्रकार

बताया है--'“जो असम्यगृरूपसे (अयोग्य मार्गका

आश्रय लेकर) कोई द्रव्य देनेके पश्चात्‌ फिर उसे

लेना चाहता है, उसे “दत्ताप्रदानिक' नामक

व्यवहारपद कहा जाता है ।'' इस प्रकरणमें इसीपर

विचार किया जाता है।]

जीविकाका उपरोध न करते हुए ही अपनी

वस्तुका दान करे; अर्थात्‌ कुटुम्बके भरण-पोषणसे

बचा हुआ धन ही देनेयोग्य है। स्त्री और पुत्र

किसीको न दे। अपना वंश होनेपर किसीको

सर्वस्वका दान न करे। जिस वस्तुको दूसरेके

लिये देनेकी प्रतिज्ञा कर ली गयी हो, वह वस्तु

उसीको दे, दूसरेको न दे। प्रतिग्रह प्रकटरूपमें

ग्रहण करे। विशेषतः स्थावर भूमि, वृक्ष आदिका

प्रतिग्रह तो सबके सामने ही ग्रहण करना चाहिये।

जो वस्तु जिसे धर्मार्थ देनेकी प्रतिज्ञा की गयी हो,

वह उसे अवश्य दे दे और दी हुई वस्तुका

कदापि फिर अपहरण न करे-उसे वापस न

ले॥ २६-२७॥

क्रीतानुशय

(अब “क्रौतानुशय' बताया जाता है। इसका

स्वरूप नारदजीने इस प्रकार कहा है--'' जो खरीददार

मूल्य देकर किसी पण्य वस्तुको खरीदनेके बाद

उसे अधिक महत्त्वकी वस्तु नहीं मानता है, अतः

उसे लौटाना चाहता है तो यह मामला 'क्रीतानुशय'

नामक विवादपद कहलाता है। ऐसी वस्तुको

जिस दिन खरीदा जाय, उसी दिन अविकृतरूपसे

← पिछला
अगला →