* अध्याय २५७४ *
कोई उपकारी प्राणी (बैल आदि) रखा गया हो
और उसके काम लेकर उसकी शक्ति क्षीण कर
दी गयी हो तो उसपर दिये गये ऋणके ऊपर
वृद्धि नहीं जोड़ी जा सकती। यदि बन्धककौ
वस्तु नष्ट हो जाय--टूट-फूट जाय तो उसे ठीक
कराकर लौटाना चाहिये और यदि वह सर्वथा
बिलुप्त (नष्ट) हो जाय तो उसके लिये भी उचित
मूल्य आदि देना चाहिये। यदि दैव अथवा राजाके
प्रकोपसे वह वस्तु नष्ट हुई हो तो उसपर उक्त
नियम लागू नहीं होता। उस दशामें ऋणग्राही
धनीको वृद्धिसहित धन लौटाये अथवा वृद्धि
रोकनेके लिये दूसरी कोई वस्तु बन्धक रखे।
'आधि' चाहे गोप्य हो या भोग्य, उसके
स्वीकार (उपभोग) -मात्रसे आधि-ग्रहणकी सिद्धि
हो जाती है। उस आधिकौ प्रयत्रपूर्वक रक्षा
करनेपर भी यदि वह कालवश निस्सार हो जाय-
वृद्धिसहित मूलधनके लिये पर्या न रह जाय तो
ऋणग्राहीको दूसरी कोई वस्तु आधिके रूपमें
रखनी चाहिये अथवा धनीकों उसका धन लौटा
देना चाहिये॥ १९-२० ॥
सखदाचारको ही बन्धक मानकर उसके द्वारा
जो द्रव्य अपने या दूसरेके अधीन किया जाता है,
उसको “चरित्र-बन्धककृत' धन कहते हैं*। ऐसे
धनको ऋणग्राही वृद्धिसहित धनीको लौटावे या
राजा ऋणग्राहीसे धनीको वृद्धिसहित वह धन
दिलवाये । यदि ' सत्यङ्कारकृत ' द्रव्य बन्धक रखा
गया हो तो धनीको द्विगुण धन लौटाना चाहिये ।
तात्पर्य यह कि यदि बन्धक रखते समय ही यह
बात कह दी गयी हो कि 'ऋणकी रकम बढ़ते-
बढ़ते दूनी हो जाय तो भी मैं दूना द्रव्य ही दूँगा।
मेरी बन्धक रखी हुई वस्तुपर धनीका अधिकार
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नहीं होगा '--इस शर्तके साथ जो ऋण लिया गया
हो वह ' सत्यङ्कारकृत ' द्रव्य कहलाता है । इसका
एक दूसरा स्वरूप भी दै । क्रय-विक्रय आदिकी
व्यवस्था ( मर्यादा )-के निर्वाहिके लिये जो दूसरेके
हाथमे कोई आभूषण इस शर्तके साथ समर्पित
किया जाता है कि व्यवस्था-भड़ करनेपर दुगुना
धन देना होगा, उस दशाम जिसने वह भूषण
अर्पित किया है, यदि वही व्यवस्था भड़ करे तो
उसे वह भूषण सदाके लिये छोड़ देना प्डेगा।
यदि दूसरी ओरसे व्यवस्था भड़ कौ गयी तो उसे
उस भूषणको द्विगुण करके लौटाना होगा । यह
भी "सत्यङ्कारकृत' ही द्रव्य ह । यदि धन देकर
बन्धक छुड़ानेके लिये ऋणग्राही उपस्थित हो तो
धनदाताको चाहिये कि वह उसका बन्धक लौटा
दे। यदि सुदके लोभयसे वह बन्धक लौटानेमें
आनाकानी करता वा विलम्ब लगाता है तो बह
चोरकौ भाँति दण्डनीय है। यदि धन देनेवाला
कहीं दूर चला गया हो तो उसके कुलके किसी
विश्वसनीय व्यक्तिके हाथमें वृद्धिसहित मूलधन
रखकर ऋणग्राही अपना बन्धक वापस ले सकता
है। अथवा उस समयतक उस बन्धकको छुड़ानेका
जो मूल्य हो, वह निश्चित करके उस बन्धकको
धनीके लौटनेतक उसीके यहाँ रहने दे, उस दशामें
उस धनपर आगे कोई वृद्धि नहीं लगायी जा
सकती। यदि ऋणग्राही दूर चला गया हो
और नियत समयतक न लौटे तो धनी ऋणग्राहीके
विश्वसनीय पुरुषों और गवाहोंके साथ उस बन्धकको
बेचकर अपना प्राप्तव्य धन ले ले (यदि पहले
बताये अनुसार ऋण लेते समय ही केवल द्रव्य
लौटानेकी शर्त हो गयी हो, तब बन्धककों नहीं
बेचा या नष्ट किया जा सकता है)। जब किया
* जैसे धनोके सदायारसे प्रभावित हौ ऋणपग्राहों बहुत अधिक मूह्यकी वस्तु उसके यहाँ बन्धक रखकर स्वल्प ही ऋण लेता
है, उसे यह विश्वास है कि धनी मेरी बुमृल्य चर्तु नष्ट नहों करेगा; सौ प्रकार ऋणग्राहीके रद्धावपर विश्वास रखकर धनौ स्वल्प
मृष्यकी वस्तु बन्धकके तौरपर लेकर अधिक घन उदे दे देता है, अध्या कुछ भौ बन्धक न रखकर पर्याप्त ऋण दे देता है, ये
सब " चरितरवन्धककृते " धनक्ी श्रेणी अते हैं।
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