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आय हो, वैसे-वैसे (उसके कुटुम्बको कष्ट दिये

बिना) ऋणकी वसूली करे। जो वृद्धिके लिये

ऋणके रूपमें दिये हुए अपने धनकों लोभवश

ऋणग्राहीके लौटानेपर भी नहीं लेता है, उसके

देय-धनको यदि किसी मध्यस्थके यहाँ रख दिया

जाय तो उस दिनसे उसपर वृद्धि नहीं होती-

व्याज नहीं बढ़ता; परन्तु उस रखे हुए धनको भी

ऋणदाताके माँगनेपर न दिया जाय तो उसपर

पूर्ववत्‌ ब्याज बढ़ता ही रहता है ॥ ३-४॥

दूसरेका द्रव्य जब खरीद आदिके बिना ही

अपने अधिकारमें आता है तो उसे 'रिक्थ' कहते

हैं। विभागद्वारा जो उस रिक्थको ग्रहण करता है,

वह “रिक्‍्थग्राह' कहलाता है। जो जिसके द्रव्यको

रिक्थके रूपमें ग्रहण करता है, उसीसे उसके

ऋणको भी दिलवाया जाना चाहिये। उसी तरह

जो जिसको स्त्रीको ग्रहण करता है, बही उसका

ऋण भी दे। रिक्थ-धनका स्वामी यदि पुत्रहीन है

तो उसका ऋण वह कृत्रिम पुत्र चुकावे, जो

एकमात्र उसीके धनपर जीवन-निर्वाह करता है।

संयुक्त परिवारमें समूचे कुटुम्बके भरण-पोषणके

लिये एक साथ रहनेवाले बहुत-से लोगोंने या

उस कुटुम्बके एक-एक व्यक्तिने जो ऋण लिया

हो, उसे उस कुटुम्बका मालिक दे। यदि वह मर

गया या परदेश चला गया तो उसके धनके भागीदार

सभी लोग मिलकर बह ऋण चुकाबें। पतिके

किये हुए ऋणको स्त्री न दे, पुत्रके किये हुए

ऋणको माता न दे, पिता भो न दे तथा स्त्रीके

द्वारा किये गये ऋणको पति न दे; किंतु यह

नियम समूचे कुटुम्बके भरण-पोषणके लिये किये

गये ऋणपर लागू नहीं होता है। ग्वाले, शराब

अनानेवाले, नर, धोबी तथा व्याधकी स्त्रियोंने जो

ऋण लिया हो, उसे उनके पति अवश्य दें; क्योकि

उनकी वृत्ति (जीविका) उन स्त्रियोंके ही अधीन

होती है। यदि पति मुमूर्यु हो या परदेश जानेवाला

हो, उसके द्वारा नियुक्त स्त्रीने जो ऋण लिया हो

वह भी यद्यपि पतिका ही किया हुआ ऋण है,

तथापि उसे पन्नीको चुकाना होगा; अथवा पतिके

साथ रहकर भार्यानि जो ऋण किया हो, वह भी

पति और पुत्रके अभावमें उस भायकि हौ चुकाना

होगा; जो ऋण स्त्रीने स्वयं किया हो, उसकी

देनदार तो वह है ही। इसके सिवा दूसरे किसी

प्रकारके पतिकृत ऋणको चुकानेका भार स्त्रीपर

नहीं है ॥ ५--९॥

यदि पिता ऋण करके बहुत दूर परदेशमें

चला गया, मर गया अथवा किसी बड़े भारी

संकटमें फस गया तो उसके ऋणको पुत्र और

पौत्र चुकावें। (पिताके अभावमें पुत्र और पुत्रके

अभावे पौत्र उस ऋणकी अदायगी करे ।) यदि

वे अस्वीकार करें तो अर्थी न्यायालयमें अभियोग

उपस्थित करके साक्षी आदिके द्वारा उस ऋणकी

यथार्थता प्रमाणित कर दे। उस दशामें तो पुत्र-

पौत्रोंको वह ऋण देना ही पडेगा । जो ऋण शराव

पीनेके लिये लिया गया हो, परस्त्री-लप्पटताके

कारण कामभोगके लिये किया गया हो, जूएमें

हारनेपर जो ऋण लिया गया हो, जो धन दण्ड

और शुल्कका शेष रह गया हो तथा जो व्यर्थका

दान हो, अर्थात्‌ धूर्तो ओर नट आदिको देनेके

लिये किया गया हो, इस तरहके पैतृक ऋणको

पुत्र कदापि न दे। भाइयोंके, पति-पन्नीके तथा

पिता-पुत्रके अविभक्त धनमें ' प्रातिभाव्य' ऋण

और साक्ष्य नहीं माना गया है ॥ १०-१२॥

विश्वासके लिये किसी दूसरे पुरुषके साथ जो

समय--शर्त या मर्यादा निश्चित की जाती है,

उसका नाम है--' प्रातिभाव्य'। बह विषय-भेदसे

तीन प्रकारका होता है। जैसे --(१) दर्शनविषयक

प्रातिभाव्य । अर्थात्‌ कोई दूसरा पुरुष यह उत्तरदायित्व

ले कि जब-जब आवश्यकता होगी, तब-तब इस

व्यक्तिको मैं न्यायालयके सामने उपस्थित कर

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