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* अध्याय २५३ *

द्मे

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रूपमे लिया जाय। स्वत्वका हेतुभूत जो प्रतिग्रह

और क्रय आदि है, उसको * आगम" कहते है ।

वह ' आगम भोगकौ अपेक्षा भी अधिक प्रबल

माना गया है। स्वत्वका बोध करानेके लिये

आगमसापिक्ष भोग ही प्रमाण है। परंतु पिता,

पितामह आदिके क्रमसे जिस धनका उपभोग

चला आ रहा है, उसको छोडकर अन्य प्रकारके

उपभोगे ही आगमकोी प्रबलता है; पूर्व-परम्परा-

प्राप्त भोग तो आगमसे भी प्रबल है; परंतु जहाँ

थोड़ा-सा भी उपभोग नहों है, उस आगममें भी

कोई बल नहीं है॥ ५३--५५३॥

विशुद्ध आगमसे भोग प्रमाणित होता है। जहाँ

विशुद्ध आगम नहीं है, वह भोग प्रमाणभूत नहीं

होता है। जिस पुरुषने भूमि आदिका आगम

(अर्जन) किया है, वही “कहाँसे तुम्हें क्षेत्र आदिकी

प्राप्ति हुई '--यह पूछे जानेपर लिखितादि प्रमाणोंद्वारा

आगम (प्रतिग्रह आदि जनित अर्जन)-का उद्धार

(साधन) करे। (अन्यथा वह दण्डका भागी होता

है।) उसके पुत्र अथवा पौत्रको आगमके उद्धारकी

आवश्यकता नहीं है। वह केवल भोग प्रमाणित

करे। उसके स्वत्वकी सिद्धिके लिये परम्परागत

भोग ही प्रमाण है ॥ ५६-५७१- ॥

जो अभियुक्त व्यवहारका निर्णय होनेसे पहले

ही परलोकवासी हो जाय, उसके धनके उत्तराधिकारी

पुत्रे आदि ही लिखितादि प्रमाणोद्रारा उसके

धनागमका उद्धार (साधन) करें; क्योकि उस

व्यवहार (मामले )- में आगमके बिना केवल भोग

प्रमाण नहीं हो सकता ॥ ५८१ ॥

जो मामले बलात्कारे अथवा भय आदि

उपाधिके कारण चलाये गये हों, उन्हें लौटा दे।

इसी प्रकार जिसे केवल स्त्रीने चलाया हो, जो

रातमें प्रस्तुत किया गया हो, घरके भीतर घटित

घटनासे सम्बद्ध हो अथवा गाँव आदिके बाहर

निर्जन स्थानमें किया गया हो तथा किसी शत्नुने

अपने द्वेषपात्रपर कोई अभियोग लगाया हो--इस

तरहके व्यवहारोको न्यायालयपें विचारके लिये न

ले-लौटा दे॥५९६॥

(अने यह बताते हैँ कि किनका चलाया हुआ

अभियोग सिद्ध नहीं होता-)जो मादक द्रव्य

पीकर मत्त हो गया हो, वात, पित्त, कफ, सन्निपात

अथवा ग्रहावेशके कारण उन्मत्त हो, रोग आदिसे

पीड़ित हो, इष्टके वियोग अथवा अनिष्टको प्राप्तिसे

दुःखमग्र हो, नाबालिग हो और शत्रु आदिसे डरा

हुआ हो, ऐसे लोगोंद्वारा चलाया हुआ व्यवहार

*असिद्ध' माना गया है। जिनका अभियुक्त -वस्तुसे

कोई सम्बन्ध न हो, ऐसे लोगोंका चलाया हुआ

व्यवहार भी सिद्ध नहीं होता (विचारणीय नहीं

समझा जाता) ॥ ६० ३ ॥

यदि किसीका चोरोंद्वारा अपहृत सुवर्णं आदि

धन शौल्किक (टैक्स लेनेवाले) तथा स्थानपाल

आदि राजकर्मचारियोंको प्राप्त हो जाय और राजाको

समर्पित किया जाय तो राजा उसके स्वापी-

धनाधिकारीको वह धन लौटा दे। यह तभी

करना चाहिये, जब धनका स्वापी खोयी हुई

वस्तुके रूप, रंग और संख्या आदि चिह्न बताकर

उसपर अपना स्वत्व सिद्ध कर सके। यदि वह

चिह्नोंद्ारा उस धनको अपना सिद्ध न कर सके

तो मिथ्यावादी होनेके कारण उससे उतना ही धन

दण्डके रूपमें वसूल करना चाहिये॥६१६॥

राजाकों चाहिये कि वह चोरोंद्वारा चुराया

हुआ द्रव्य उसके अधिकारी राज्यके नागरिकको

लौटा दे। यदि वह नहीं लौटाता है तो जिसका

बह धन है, उसका सारा पाप राजा अपने ऊपर

ले लेता है॥६२॥

(अब ऋणादान-सम्बन्धी व्यवहारपर विचार

करते हैं--) यदि कोई वस्तु बन्धक रखकर ऋण

लिया जाय तो ऋणमें लिये हुए धनका ^ भाग

प्रतिमास ब्याज धर्मसंगत होता है; अन्यथा

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