“प्रतिपक्ष” कहलाता है। 'भूत' ओर 'छल'--
इनका अनुसरण करनेसे यह दो गतियोंसे युक्त
माना जाता है॥३--१२॥
कैसा ऋण देय है, कैसा ऋण अदेय है--
कौन दे, किस समय दे, किस प्रकारसे दे, ऋण
देनेकी विधि या पद्धति क्या है तथा उसे लेने या
वसूल करनेका विधान क्या है ? इन सब बातोंका
विचार, 'ऋणादान” कहा गया है। जब कोई
मनुष्य किसीपर विश्वास करके शङ्कारहिते होकर
उसके पास अपना कोई द्रव्य धरोहरके तौरपर
देता है, तब उसे विद्वान् लोग “निश्षेप' नामक
व्यवहारपद कहते हैं। जब वणिक् आदि अनेक
मनुष्य मिलकर सहकारिता या साझेदारीके तौरपर
कोई कार्य करते हैं तो उसको “सम्भूयसमुत्थान'
संज्ञक विवादपद बतलाते हैं। यदि कोई मनुष्य
पहले विधिपूर्वकं किसी द्रव्यका दान देकर पुनः
उसे रख लेनेकौ इच्छा करे, तो वह " दत्ताप्रदानिक '
नामक विवादपद कहा जाता है । जो सेवा स्वीकार
करके भी उसका सम्पादन नहीं करता या उपस्थित
नहीं होता, उसका यह व्यवहार "अभ्युपेत्य
अशुश्रूषा" नामक विवादपद होता है। भूत्योको
वेतन देने-न-देनेसे सम्बन्ध रखनेवाला विवाद
"वेतनानपाक्रम' माना गया है। धरोहरमें रखे हुए
या खोवे हुए पराये द्रव्यको पाकर अथवा चुराकर
स्वामीके परोक्षमें बेचा जाय तो यह
*अस्वामिविक्रय' नामक विवादपद है। यदि कोई
व्यापारी किसी पण्य-द्रव्यका मूल्य लेकर विक्रय
कर देनेके बाद भी खरीददारकों वह द्रव्य नहीं
देता है तो उसको 'विक्रीयासपम्प्रदान' नामक
विवादपद कहा जाता है। यदि ग्राहक किसी
वस्तुका मूल्य देकर खरीदनेके बाद उस वस्तुको
ठीक नहीं समझता, तो उसका यह आचरण
“क्रीतानुशय' नामक विवादपद कहलाता है। यदि
ग्राहक या खरीददार मूल्य देकर वस्तुको खरीद
लेनेके बाद यह समझता है कि यह खरीददारी
ठीक नहीं है, (अतः बह वस्तु लौटाकर दाम
वापस लेना चाहता है) तो उसी दिन यदि वह
लौटा दे तो विक्रेता उसका मूल्य पूरा-पूरा लौटा
दे, उसमें काट-छाट न करेः॥ १३ --२१॥
पाखण्डी और नैगम आदिकी स्थितिको 'समय'
कहते हैं। इससे सम्बद्ध विवादपदको 'समयानपा-
कर्म" कहा जाता है। ( याञ्चवल्क्यने इसे 'संबिद्-
ब्यतिक्रम' नाम दिया है।) क्षेत्रके अधिकारको
लेकर सेतु, केदार (मेड़) और क्षेत्र सीमाके
१, ऋणादावके सात प्रकार है -- १-अमुक प्रकारका ऋण * देय' है, २-अपुक प्रकाएका ऋण ' अदेय है, ३-अमुक अधिकारीकों
ऋण देनेका अधिकार है, ४-अमुक समये ऋण देना चाहिये, ५-इस प्रकारसे ऋण दिया जाता चाहिये -ये पजौच अधमर्ण (ऋण
लेनेयाले) व्यक्तिकों लक्ष्य करके विचारणौय हैं और शेष दो बातें साहुकारके लिये चित्तरणोय हैं --६-साहूकढर किस विधानसे ऋण दे तथा
७-क्रिस विधानसे उसको वसूल करे । इन्हीं सातों बार्तोको इस सलोपे स्पष्ट किया गया है। 'नारद-स्मृति” में भी इस्तका! इसी रूपमें
उल्लेख हुआ है। इन सब ब्लोक विचारपूर्वक जो ऋणका आदाव-प्रदान होता है, उसे 'ऋणादान' नामक व्यवहारपद समझना चाहिये ।
२. 'तारदस्मृति'में भी इन श्लोकरंका ठीक ऐसा हो पाठ है। वहाँ इस विषयमे कुख अधिक जतं बतायो गयी हैं, जो इस प्रकार हैं--
द्वितौयेऽद्धि ददव् क्रेता मूल्यात् ज़िंशांशमाहरेव् | दविगुणं तु ठृतोये5हि परत: क्रेतुरेव चत् &
“यदि ग्राहक नापसंद माल (पहले हो दिन न लौटाकर) दूसरे दिन लौटाबे ठो वह वस्तुके पूरे मूल्यका ६ अर्थात् ३३ प्रतिशत
हरजानाके तौरपर विक्रेताकों दे। यदि यह तोसरे दिन लौटायें तो इससे दूनौ रकम हजनिके तौरपर दे। इसके बाद ' अनुशय ' का अधिकार
समाप्त हो जाता है। फिर तो ग्राहककों पाल लेव ही पड़ेगा।'
याङवल्क्य और घिताक्षराकारकी दृष्टम यह नियम बोज आदिसे भिन बस्तुओंपर लागू होता है। बीज, लोहा, बैल-घोड़े आदि
याहत, मोती-मूँगा आदि रत्न, दासौ, दूध देनेयाली भत्र आदि ग़धा दास-इतके परीक्षणका करल अधिक है। यथा--बीजके परीक्षणका
समय दस दित, लोहेके एक दिन, बैल आदिके पाँच दि, रत्रके एक सप्ताह, दासीके एक मास, दूध देनेवाल भैंस आदिके तीन दिने
तथा दासके परोक्षणका समय प्रह दिनतक है। इस समयके भोतर हो ये ठीक न जँ तो इनको लौयया जा सकता है; अन्यथा नह
मतुने गृह, क्षेत्र आदि वस्तुको दस दिक्के अंदर ही लीरानेका आदेश दिया है। इसके बाद लौटानेका अधिकार नहीं रह जाता है।