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मारकर सब ओरके लक्ष्यको वेधनेका अभ्यास

करें॥ ८--१० ॥

तदनन्तर बह तीक्ष्ण, परावृत्त, गत, निम्न,

उन्नत तथा क्षिप्र वेधका अभ्यास बढ़ाबे।' वेध्य

लक्ष्यके ये जो उपर्युक्त स्थान हैं, इनमें सत्व (बल

एवं धैर्य)-का पुट देते हुए विचित्र एवं दुस्तर

रीतिसे सैकड़ों बार हाथसे बाणोंके निकालने एवं

छोड़नेकी क्रियाद्वारा धनुषका तर्जन करें--उसपर

टङ्कारः दे॥ ११-१२॥

विप्रवर! उक्तं वेध्यके अनेक भेद हैं। पहले

तो दृढ़, दुष्कर तथा चित्र दुष्कर-ये वेध्यके तीन

भेद हैं। ये तीनों ही भेद दो-दो प्रकारके होते हैं।

“नतनिम्न' और ' तीक्ष्ण'-ये 'दृढ़वेध्य' के दो भेद

हैं।दुष्करवेध्य ' के भी 'निम्न' और ' ऊर्ध्वगत '--

ये दो भेद कहे गये हैं तथा “चित्रदुष्कर' वेध्यके

*मस्तकपन' और “मध्य '-ये दो भेद बताये गये

हैं॥ १३-१४ २॥

* अध्याय २७५० +

पुरुष पहले दार्ये अथवा वारये पार्चसे शत्रुसेनापर

चढ़ाई करे । इससे मनुष्यको अपने लक्ष्यपर विजय

प्राप्त होती है । प्रयोक्ता पुरुषोनि वेध्यके विषयमे

यही विधि देखी और बतायी है ॥ १५-१६॥

योद्धाके लिये उस वेध्यकी अपेक्षा भ्रमणको

अधिक उत्तम बताया गया है । वह लक्ष्यको अपने

बाणके पुद्खभागसे आच्छादित करके उसकी ओर

दृढ़तापूर्वक शर-संधान करे । जो लक्ष्य भ्रमणशील,

अत्यन्त चञ्चल और सुस्थिर हो, उसपर सब

ओससे प्रहार करे । उसका भेदन और छेदन करे

तथा उसे सर्वथा पीड़ा पहुँचाये॥ १७-१८ ॥

कर्मयोगके विधानका ज्ञाता पुरुष इस प्रकार

समझ-बूझकर उचित विधिका आचरण (अनुष्ठान)

करे। जिसने मन, नेत्र और दृष्टिके द्वारा लक्ष्यके

साथ एकता-स्थापनकी कला सीख ली है, वह

योद्धा यमराजकों भी जीत सकता है। (पाठान्तरके

अनुसार वह श्रमको जीत लेता है--युद्ध करते-

इस प्रकार इन वेध्यगणोंको सिद्ध करके बीर | करते थकता नहीं।)॥ १९॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें ' धनुकेदका कथन” नामक

दो सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २५० #

[न डर 4. ध>

१. * वासिषट- धनुर्वेद 'में वेध ' तीज प्रकारका बाया गया है-- पुष्पयेध, मत्स्यवेध और मांसवेध। फलरहित बाणसे फूलको वेधना

“पुष्पवेध' है। फलयुक्त बाणसे मत्त्यका भेदने करता 'मत्स्यवेध" है। तदनन्तर मांसके प्रति लक्ष्यका स्थिरीकरण " मांसवेध" कहलाता

है। इन वेधोंके सिद्ध हो जतेपर मनुष्योंके याण उनके लिये सर्वसाधक होते हैं--'एतै्ेंथै: कृतैः पुंसां शराः स्युः सर्वसाधकाः ।'

२. 'वीरचित्तामणि'में ' ब्रमकरण' ( धनुष चलानेके परिश्रमपूर्यक अभ्यास्त)-के प्रकरणमें इस तरहकी यत लिखी हैं। यंथा--

पहले घनुषकों चढ़ाकर शिखा बंध ले, पूर्वोक्त स्थानभेटमेंसे किसी एकका आश्रय से, खड़ा हों, याणके ऊपर हाथ रखे। धनुषके

तोखवपूर्वक उसे चाये हाथमे ले। तदनन्तर बाणका आदान करके संधान करे । एक यार धनुषकौ प्रयञ्चा खचकर भूमियेधत करे।

पहले भागवान्‌ शंकर, विन्नरान गणेश, गुरुदेव तथा धनुष- बालको नमस्कार करे । किर भ्राण खौंचनेके लिये गुरुम आज्ञा माँगे।

प्राणवायुक प्रयत्र (पूरक प्राणायाम) -के साथ बाणसे धनुषकों फूरित करे । कुम्भकं प्राणायामके द्वारा उसे स्थिर करके रेचक प्राणायाम

एवं हुंकारके साथ वायु एवं बाणका विसर्जन करे । सिद्धिकौ इच्छावाले धनुर्धर योद्धाको यह अभ्यास-क्रिया अवश्य करनी चाहिये ।

छः मासमे 'मुष्टि' सिद्ध होती है और एक वर्षमे ' बान '। " नाराच" तो उसोके सिद्ध होते हैं, जिसपर भावात्‌ महेंश्वरकी कृषा हो

जाय। अपनी सिद्धि चाहतेवाला योद्धा आाणकों फूलकी भाँति धारण करे । फिर धनुधको सर्पकी भाँति दयावे तथा लक्ष्यका यहुमूल्य

धनकी भाँति चिन्तन करे, इत्यादि ।

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