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है। विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि अष्टदल-कमलचक्रे | | मानस (अन्तरात्मा) विराजमान हैं ॥ ४०--४८॥

प्रकृतिका चिन्तन करके उसका पूजन करे। उस | साधकको चाहिये कि वह सम्पूर्ण मनोरथोंकी

कमलके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दलोंमें | सिद्धिके लिये तथा राज्यपर विजय पानेके लिये

हृदय आदि चार अङ्गका न्यास करे । अग्निकोण | विश्वरूप (परमात्मा )-का यजन करे। सम्पूर्ण

आदिके दलोंमें अस्त्र एवं वैनतेय (गरुड) | व्यूहों, हृदय आदि पाँचों अङ्गो, गरुड आदि तथा

आदिको पूर्ववत्‌ स्थापित करे। इसी तरह पूर्वादि | इन्द्र आदि दिकृपालोके साथ ही उन श्रीहरिकी

दिशाओंमें इन्द्रादि दिकूपार्लोका चिन्तन करे । इन | पूजाका विधान है। ऐसा करनेवाला उपासक

सबके ध्यान-पूजनकौ विधि एक-सी है । (सूर्य, | सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर सकता है। अन्ते

सोम और अग्निरूप) त्रिव्यूहमें अग्निका स्थान | विष्वक्सेनकी नाम-मन्त्रसे पूजा करे । नामके साथ

मध्यमें है। पूर्वादि दिशाओकि दलोंमें जिनका | "रौ" बीज लगा ले, अर्थात्‌ “रौ विष्वक्सेनाय

आवास है, उन देवताओकि साथ कमलकी कर्णिका | नमः ।' बोलकर उनके लिये पूजनोपचार अर्पित

नाभस (आकाशकी भाँति व्यापक आत्मा) तथा | करे ॥ ४९-५० ॥

इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें “कादुदेकादि मन्त्रोंके लक्षण ( तथा न्यास] -का वर्णन नामक

पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५॥

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छब्बीसवाँ अध्याय

मुद्राओंके लक्षण

नारदजी कहते हैं-- मुनिगण! अब मैं मुद्राओंका | और बायें अङ्को ऊपर उठाये रखे। सारांश यह

लक्षण बताऊँगा। सांनिध्य' (संनिधापिनी) आदिः | है कि बायें और दाहिने--दोनों हाथोंके आँगूठे

मुद्राके प्रकार-भेद हैं। पहली मुद्रा अञ्जलि" है, | ऊपरकी ओर ही उठे रहें। यही 'हृदयानुगा' मुद्रा

दूसरी वन्दनी" है और तीसरी हृदयानुगा है। बाय | है। (इसीको कोई “संरोधिनी " और कोई "निष्ठुर

हाथकी मुद्रीसे दाहिने हाथके अँगूठेको बाँध ले। कहते हैं) । व्यूहार्चनमें ये तीन मुद्राएँ साधारण हैं।

१. दोनों हाथोंके अँगूठॉंकों ऊपर करके मुट्ठी बाँधकर दोनों मुद्ठियोंकों परस्पर सटानेसे “संनिधापिनी मुद्र होती है।

२. 'आदि' पदमे 'आयाहनी' आदि मुद्राऑँको ग्रहण करना चाहिये। उनके लक्षण ग्रन्थात्तरसे जानने चाहिये।

३. यहाँ अज्ञलिको प्रथम मुद्रा कहा गया है । अञ्जलि" और ' वन्दनी '-दोझों मुरा प्रसिद्ध हैं; अत: उनका विशेष लक्षण यहाँ नहीं

दिया गया है। तथापि न््रमहार्णवर्मे अञ्जलिको ही 'अकलिमुद्रा' कहते हैं, यह परिभाषा दी गवी है--' अजल्यञ्ञलिमुद्रा स्यात्‌ ॥

४, हाथ जोड़कर नमस्कार करना हौ " वन्दनी ' मुद्रा है। ईशान शिंगुरुदेव-पद्धतिमें इसका लक्षण इस प्रकार दिया गया है --

बद्ध्याझलिं पद्भूजकोशकल्पं यद्दक्षिणज्येप्चिकया तु वामाम्‌ । जेष्ठ समाक्रम्य तु वन्दनीयं मुद्रा नमस्कारविधी प्रयोज्या ॥

अर्थात्‌ कमल-मुकुलके समान अञ्जलि बाँधकर, जय दाहिने ओँगूठेसे बायें अँगूठेकों दबा दिया जाय तो “बन्दिनो मुद्रा' होतो है।

इसका प्रयोग नमस्कारके लिये होना चाहिये (उत्तरार्ध क्रियापाद, ससम पटल ९)॥

५. यहाँ मूलमें 'इृदयानुणा' मुद्राका जो लक्षण दिया गया है, यही अन्यत्र 'संरोधिनी मुद्रा 'का लक्षण है। मन्त्रमहार्णवसें ' संनिधापिनो

सुद्रा'का लक्षण देकर कहा है--'अन्तःप्रबेशिताज़ुष्ठा सीव संरोधितरी मता।' अर्थात्‌ संनिधापिनोको ही यदि उसकी मुष्टिक भीतर

अद्भुप्ठका प्रवेश हो तो * संगोधिनी ' कहते हैं। इदयानुगा्मे बाय मुद्रीके भीतर दाहिनी मुद्ठीका अँगूठा रहता है और कां अँगूठा खुला

रहता है, परंतु संरोधित्रीमें दोनों ही अँगूठे मुद्दोके भीतर रहते हैं, यौ अन्तर है।

६, ईशानशियपुरूदेय मित्रने शब्दान्तरसे यही बात कही है। उन्होंने संनिरोधिनीकों निष्ुरकी संज्ञा दी है ~

*संलग्नमुष्टघों: करयोः स्थितोर्वजयष्ठासुगं यत्र॒ समुन्नताग्रम्‌।सा सॉनिधापिन्यथ सैव गर्भावुझा भवेच्चेदिह निष्ठाया ॥'

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