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दो सौ सैंतालीसवाँ अध्याय

गृहके योग्य भूमि; चतु:षष्टिपद वास्तुमण्डल और वृक्षारोपणका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ट ! अब मैं वास्तुके

लक्षणोंका वर्णन करता हूँ। वास्तुशास्त्रमें ब्राह्मण,

क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके लिये क्रमशः शेत,

रक्त, पीत एवं काले रंगकी भूमि निवास करनेयोग्य

है। जिस भूमिपें घृतके समान गन्ध हो बह ब्राह्मणोकि,

रक्तके समान गन्ध हो वह क्षत्रियोंके, अन्नकी-

सी गन्ध हो वह वैश्योकि ओर मद्यतुल्य गन्थ हो

वह श्रोके बास करनेयोग्य मानी गयी है । इसी

प्रकार रसमें ब्राह्मण आदिके लिये क्रमशः मधुर,

कषाय और अम्ल आदि स्वादसे युक्त भूमि होनी

चाहिये । चारों वर्णको क्रमशः कुश, सरपत, कास

तथा दूर्वासे संयुक्तं भूमिम घर बनाना चाहिये ।

पहले ब्राह्म्णोका पूजन करके शल्यरहित भूमिमें

खात (कुण्ड) बनावे ॥ १-३॥

फिर चौंसठ पदोंसे समन्वित वास्तुमण्डलका

निर्माण करे। उसके मध्यभागमें चार पदोंमें ब्रह्माकी

स्थापना करे। उन चारों पदोंके पूर्वमे गृहस्वामी

"अर्यमा" बतलाये गये हैं। दक्षिणमें विवस्वान्‌,

पश्चिममें मित्र और उत्तर दिशामें महीधरको अद्भित

करें। ईशानकोणमें आप तथा आपवत्सको,

अग्निकोणमें सावित्र एवं सविताको, पश्चिमके

समीपबर्ती नैऋत्यकोणमें जय और इन्द्रकों और

बायव्यकोणमें रुद्र॒ तश्चा व्याधिको लिखे । पूर्व

आदि दिशाओमिं कोणवर्ती देवताओंसे पृथक्‌

निम्नाङ्किति देवताओंका लेखन करे पूर्वमे महेन्द्र,

रवि, सत्य तथा भृश आदिको, दक्षिणमें गृहक्षत,

यम, भूद्ग तथा गन्धर्व आदिको, पश्चिममें पुष्पदन्त,

असुर, वरुण ओर पापयक्ष्मा आदिको, उत्तर दिशामें

भल्लाट, सोम, अदिति एवं धनदको तथा

ईशानकोणमे नाग और करग्रहको अङ्कित करे ।

प्रत्येकं दिशाके आठ देवता माने गये हैँ । उनमें

प्रथम और अन्तिम देवता वास्तुमण्डलके गृहस्वामी

कहे गये हैं । पूर्व दिशाके प्रथम देवता पर्जन्य हैं,

दूसरे करग्रह (जयन्त), महेन्द्र, रवि, सत्य, भृश,

गणन तथा पवन रै । कुछ लोग आग्रेयकोणमें गगन

एवं पवनके स्थानपर अन्तरिक्ष और अग्निको मानते

हैं। नैऋत्यकोणमे मृग और सुग्रीव --इन दोनों

देवताओंको, वायव्यकोणमें रोग एवं मुख्यको,

दक्षिणेँ पुषा, वितथ, गृहक्षत, यम, भृद्ध, गन्धर्व,

मृग एवं पितरको स्थापित करे। वास्तुपण्डलके

पश्चिम भागमें दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, असुर,

वरुण, पापयक्ष्मा ओर शेष स्थित है । उत्तर दिशामें

नागराज, मुख्य, भल्लार, सोम, अदिति, कुर,

नाग और अग्नि (करग्रह) सुशोभित होते हैं।

पर्व दिशामें सूर्य और इन्द्र श्रेष्ठ है । दक्षिण दिशामें

गृहक्षत पुण्यमय हैं, पश्चिम दिशामें सुग्रीव उत्तम

और उत्तद्धारपर पुष्पदन्त कल्याणप्रद है । भल्लारको

ही पुष्पदन्त कहा गया है ॥ ४--१५॥

इन वास्तुदेबताओंका मरन्त्रोसे पूजन करके

आधारशिलाका न्यास करे। तदनन्तर निम्नङ्धत

मन्त्रसे नन्दा आदि देवियोका पजन करे-

*वसिष्ठनन्दिनी नन्दे! मुझे धन एवं पुत्र-पौत्रोंसे

संयुक्त करके आनन्दित करो । भार्गवपुत्रि जये!

आपके प्रजाभूत हमलोगोंकों विजय प्रदान करो।

अज्विरसतनये पूर्ण! मेरी कामनाओंकों पूर्ण करो।

कश्यपात्मजे भद्रे! मुझे कल्याणमयी बुद्धि दो।

वसिष्ठपुत्रि नन्दे! सब प्रकारके बीजोंसे युक्त एवं

सम्पूर्ण रत्नोंसे सम्पन्न इस मनोरम नन्दनवनमें

विहार करो। प्रजापतिपुत्रि! देवि भद्रे! तुम उत्तम

लक्षणों एवं श्रेष्ठ ब्रतको धारण करनेवाली हो;

कश्यपनन्दिनि। इस भूमिमय चतुष्कोणभवनमें निवास

करो भार्गवतनये देवि ! तुम सम्पूर्ण विश्वको ऐश्वर्य

प्रदान करनेवाली हो; श्रेष्ठ आचार्योद्रारा पूजित

एवं गन्ध और मालाओंसे अलंकृत मेरे गृहमें

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