तथा शूर्पारकदेशीय खड़ः अत्यन्त दृढ़ होते हैं।
बड्भदेशके खड़ तीखे एवं आघातको सहन करनेवाले
तथा अड्भदेशीय खङ्ग तीक्ष्ण कहे जाते हैं। पचास
अङ्गुलका खड़ श्रेष्ठ माना गया है। इससे अर्ध-
परिमाणका मध्यम होता है। इससे हीन परिमाणका
खड़ धारण न करे॥ २१--२३॥
द्विजोत्तम! जिस खङ्गका शब्द दीर्घं एवं
किंकिणीकी ध्वनिके समान होता है, उसको धारण
करना श्रेष्ठ कहा जाता है। जिस खड़॒का अग्रभाग
पद्मपत्र, मण्डल या करवीर-पत्रके समान हो
तथा जो घृत-गन्धसे युक्त एवं आकाशकौ-सौ
कान्तिवाला हो वह प्रशस्त होता है। खड़में
समाञ्जुलपर स्थित लिङ्कके समान व्रण (चिह्न)
प्रशंसित है। यदि वे काक या उलुकके
समान वर्ण या प्रभासे युक्त एवं विषम हों, तो
मङ्गलजनक नहीं माने जाते। खड़में अपना
मुख न देखे । जूँठे हाथोंसे उसका स्पर्शं न करे।
खड़की जाति एवं मूल्य भी किसीको न बतलाये
तथा रात्रिके समय उसको सिरहाने रखकर न
सोवे॥ २४--२७॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणे “ चामरं आदिके लक्षरणोका कथन" नापक
दो सौ पैगलीसर्वाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २४५ ॥
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दो सौ छियालीसवाँ अध्याय
रत्न-परीक्षण
अग्निदेव कहते हैं-- ट्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ! अब
मैं रत्नोंके लक्षणोंका वर्णन करता हूँ। राजाओंको
ये रत्न धारण करने चाहिये--वज्र (हीरा), मरकत,
पद्मराग, मुक्ता, महानील, इन्द्रनील, वैदूर्य, गन्धसस्य,
चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, स्फरिक, पुलक, कर्केतन,
पुष्पराग, ज्योतीरस, राजपट्ट, राजमय, शुभसौगन्धिक,
ग्ज, शङ्ख, ब्रह्ममय, गोमेद, रुधिराक्ष, भाच्तक,
धूली, मरकत, तुष्यक, सीस, पीलु, प्रवाल, गिरिवज्,
भुजङ्गमणि, वज्रमणि, टिट्टिभ, भ्रामर और उत्पल।
श्री एवं विजयकी प्राप्तिके लिये पूर्वोक्तं रत्नोंको
सुवर्णमण्डित कराके धारण करना चाहिये। जो
अन्तर्भागं प्रभायुक्त, निर्मल एवं सुसंस्थान हों, उन
रत्रोंकों ही धारण करना चाहिये । प्रभाहीन, मलिन,
खण्डित और किरकिरीसे युक्त रज्ञोंकों धारण न
करे। सभी रत्नोंमें हीरा धारण करना श्रेष्ठ है। जो
हीरा जलमें तैर सके, अभेद्य हो, षट्कोण हो,
इन्द्रधनुषके समान निर्मलं प्रभासे युक्त हो, हल्का
तथा सूर्यके समान तेजस्वी हो अथवा तोतेके पट्ढोंके
समान वर्णवाला हो, सिग्ध, कान्तिमान् तथा विभक्त
हो, वह शुभ माना गया है । मरकतमणि सुवर्ण-
चूर्णके समान सूक्ष्म बिन्दु ओसि विभूषित होनेपर श्रेष्ठ
बतलायी गयी है । स्फटिक और पद्मराग अरुणिमासे
युक्त तथा अत्यन्त निर्मल होनेपर उत्तम कहे जाते
हैं। मोती शुक्तिसे उत्पन्न होते हैं, किंतु शङ्खसे
बने मोती उनकी अपेक्षा निर्मल एवं उत्कृष्ट होते
हैं। ऋषिप्रवर! हाथीके दाँत और कुम्भस्थलसे उत्पन्न,
सुकर, मत्स्य और वेणुनागसे उत्पन्न एवं मेघोंद्वारा
उत्पन्न मोती अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं। मौक्तिकमें वृत्तत्व
(गोलाई), शुक्लता, स्वच्छता एवं महत्ता-ये गुण
होते है । उत्तम इन्द्रनीलमणि दुग्धमें रखनेपर अत्यधिक
प्रकाशित एवं सुशोभित होती है। जो र्न अपने
प्रभावसे सबको रञ्जित करता है, उसे अमूल्य
समझे। नील एवं रक्त आभावाला वैदूर्य श्रेष्ठ होता
है। यह हारमें पिरोने योग्य दै ॥ १--१५॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें "रल- परतीकषी- कथन ” तामक
दो साँ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २४६ ॥
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