* अध्याय २४५ *
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दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय
चामर, धनुष, बाण तथा खड़के लक्षण
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ट ! सुवर्णदण्डभूषित
चामर उत्तम होता है। राजाके लिये हंसपक्ष,
मयूरपक्ष या शुकपक्षसे निर्मित छत्र प्रशस्त माना
गया है। वकपक्षसे निर्मित छत्र भी प्रयोगमे लाया
जा सकता है, किंतु मिश्रित पक्षोंका छत्र नहीं
बनवाना चाहिये । तीन, चार, पाँच, छः, सात या
आठ पर्वोसे युक्त दण्ड प्रशस्त है ॥ १-२६॥
भद्रासन ण त ऊँचा एवं क्षीरकाष्टसे
निर्मित हो वह एवं तीन हाथ विस्तृत
होना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! धनुषके निर्माणके लिये
लौह, शृङ्गं या कापष्ट-इन तीन द्रव्योका प्रयोग
करे प्रत्यज्ञाके लिये तीन वस्तु उपयुक्त हैं --वंश,
भङ्ग एवं चर्म ॥ ३-४7 ॥
दारुनिर्मित श्रेष्ठ धनुषका प्रमाण चार हाथ
माना गया है। उसीमें क्रमश: एक-एक हाथ कम
मध्यम तथा अधम होता है। मृष्टिगराहके निमित्त
धनुषके मध्यभागे द्रव्य निर्मित करावे ॥ ५-६॥
धनुषकी कोटि कामिनीकी भ्रूलताके समान
आकारवाली एवं अत्यन्त संयत बनवानी चाहिये।
लौह या गृङ्गके धनुष पृथक्-पृथक् एक ही द्रव्यके
या मिश्रित भी बनवाये जा सकते है । श्रृड्धनिर्मित
धनुषको अत्यन्त उपयुक्त तथा सुवर्ण-बिन्दु ओसि
अलंकृत करे । कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष
निन्दित होता है। धातुओंमें सुवर्ण, रजत, ताम्र
एवं कृष्ण लौहेका धनुषके निर्माणमें प्रयोग करे ।
शा्दखधनुरषोमिं - महिष, शरभ एवं रोहिण मृगके
श्ुड्“ोंस निर्मित चाप शुभ माना गया है । चन्दन,
वेतस, साल, धव तथा अर्जुन वृक्षके काष्टसे अना
हुआ दारुमय शरासन उत्तम होता है। इनमें भौ
शरद् ऋतुमें काटकर लिये गये पके बाँसोंसे निर्मित
धनुष सर्वोत्तम माना जाता है । धनुष एवं खड़की
भी त्रैलोक्यमोहन- मन्त्रोसे पूजा करे ॥ ७ -११॥
लोहे, बाँस, सरकंडे अथवा उससे भिन किसी
और वस्तुके बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ, स्नायुश्लिषट
सुवर्णपुद्डभूषित, तैलधौत, सुनहले एवं उत्तम पड्डुयुक्त
होने चाहिये । राजा यात्रा एवं अभिषेके धनुष-
बाण आदि अस्त्रो तथा पताका, अस्त्रसंग्रह एवं
दैवज्ञका भी पूजन करे ॥ १२-१३ ३ ॥
एक समय भगवान् ब्रह्मने सुमेरु पर्वतके शिखरपर
आकाशगङ्गाके किनारे एक यज्ञ किया था। उन्होंने
उस यज्ञमें उपस्थित हुए लौहदैत्यको देखा। उसे
देखकर वे इस चिन्ता डूब गये कि “यह मेरे
यज्ञमें विध्नरूप न हों जाय।' उनके चिन्तन करते
ही अग्रिसे एक महाबलवान् पुरुष प्रकट हुआ
और उसने भगवान् ब्रह्माकी वन्दना की। तदनन्तर
देवताओंने प्रसन होकर उसका अभिनन्दन किया।
इस अभिनन्दनके कारण ही वह * नन्दक" कहलाया
और खद्भरूप हो गया। देवताओकि अनुरोध करनेपर
भगवान् श्रीहरिने उस नन्दक खद्गको निजी आयुधके
रूपमे ग्रहण किया। उन देवाधिदेवने उस खद्गको
उसके गलेमें हाथ डालकर पकड़ा, इससे वह
खड़ म्यानके बाहर हो गया। उस खड़की कान्ति
नीली थी, उसकी मुष्टि रतरमयी थी। तदनन्तर वह
बढ़कर सौ हाथका हो गया। लौहदैत्यने गदाके
प्रहारसे देवताओंको युद्धभूमिसे भगाना आरम्भ
किया। भगवान् विष्णुने उस लौहदैत्यके सारे अङ्ग
उक्त खद्गसे कार डाले। नन्दकके स्पर्शमात्रसे छिन-
भिन होकर उस दैत्यके सारे लौहमय अङ्ग भूतलपर
गिर पड़े। इस प्रकार लोहासुरका वध करके भगवान्
श्रीहरिने उसे वर दिया कि "तुम्हारा पवित्र अङ्घ
(लोह) भूतलपर आयुधके निर्माणके काम आयेगा।'
फिर श्रीविष्णुके कृपा- प्रसादसे ब्रह्माजीने भी उन
सर्वसमर्थ श्रीहरिका यज्ञके द्वार निर्विघ्न पूजन किया।
अव मैं खड़के लक्षण बतलाता हूँ॥ १४--२० ‡ ॥
खटीखदट्र देशमें निर्मित खड़ दर्शनीय माने
गये हैँ । ऋषीक देशक खड़ शरीरको चीर् डालनेवाले