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मौजके अनुसार व्यूह बनाने चाहिये। व्यूह शत्रुसेनाकी | बध करके अयोध्याका राज्य प्राप्त किया। श्रीरामकी

प्रगतिको रोकनेवाले होते हैं॥६५--७२॥

बतायी हुई उक्त नीतिसे ही पूर्वकालमें लक्ष्मणने

अग्निदेव कहते हैँ -- ब्रह्मन्‌! श्रीरामने रावणका | इन्द्रजित्‌का वध किया था॥७३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणे "राजनीति- कथन नामक

दो सौ बवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २४२ ॥

"बला" "प

दो सौ तैंतालीसवाँ अध्याय

पुरुष-लक्षण-वर्णन

अग्निदेव कहते हैं---वसिष्ट ! मैंने श्रीरामके

प्रति वर्णित राजनीतिका प्रतिपादन किया। अब मैं

स्त्री-पुरुषोंके लक्षण बतलाता हूँ, जिसका पूर्वकालमें

भगवान्‌ समुद्रने गर्ग मुनिको उपदेश दिया था॥ १॥

समुद्रने कहा-- उत्तम व्रतको आचरण करनेवाले

गर्ग! मैं स्त्री-पुरुषोंके लक्षण एवं उनके शुभाशुभ

फलका वर्णन करता हूँ। एकाधिक, द्विशुक्ल,

ब्रिगाभीर, त्रित्रिक, त्रिप्रलप्ब, त्रिकव्यापी,

त्रिवलीयुक्त, त्रिविनत, त्रिकालज्ञ एवं त्रिविपुल

पुरुष शुभ लक्षणोंसे समन्वित माना जाता है। इसी

प्रकार चतुर्लेख, चतुस्सम, चतुष्किष्कु, चतुर्दाष्ट,

चतुष्कृष्ण, चतुर्गन्ध, चतुर्हस्व, पञ्चसूक्ष्म, पञ्चदीर्घं,

पडुननत, अष्टवंश, सप्तस्नेह, नवापल, दशप,

दशव्यूह, न्यग्रोधपरिमण्डल, चतुर्दशसमद्न्द्र एवं

षोडशाक्ष पुरुष प्रशस्त है॥२--६३॥

धर्म, अर्थ तथा कामसे संयुक्त धर्म एकाधिक'

माना गया है। तारकाहीन नेत्र एवं उज्ज्वल

दन्तपद्धिसे सुशोभित पुरुष “द्विशुक्ल' कहलाता

है । जिसके स्वर, नाभि एवं सत्त्व - तीनों गम्भीर

हों, वह 'त्रिगम्भीर" होता है। निर्मत्सरा, दया,

क्षमा, सदाचरण, शौच, स्पृहा, ओदार्य, अनायास

(अथक श्रम) तथा शूरता-इनसे विभूषित पुरुष

“त्रित्रक' माना गया है । जिस मनुष्यके वृषण

(लिङ्ग ) एवं भुजयुगल लंबे हों, वह “त्रिप्रलम्ब'

कहा जाता है। जो अपने तेज, यश एवं कान्तिसे

देश, जाति, वर्ग एवं दसों दिशाओंको व्याप्त कर

लेता है, उसको ' त्रिकव्यापौ ' कहते है । जिसके

उदरमे तीन रेखाएँ हों, वह ' त्रिवलीमान्‌' होता

है । अब ' त्रिविनत' पुरुषका लक्षण सुनो। वह

देवता, ब्राह्मण तथा गुरुजनोंके प्रति विनीत होता

है । धर्म, अर्थं एवं कामके समयका ज्ञाता "त्रिकालज्ञ"

कहा जाता है। जिसका वक्षःस्थल, ललाट एवं

मुख विस्तारयुक्त हो, वह 'त्रिविपुल' तथा जिसके

हस्तयुगल एवं चरणयुगल ध्वज-छत्रादिसे चिह्नित

हों, वह पुरुष ' चतुर्लेख ' होता है। अति „ हदय,

पृष्ठ एवं कटि -ये चारों अङ्ग समान प्रशस्त

होते है । ऐसा पुरुष “ चतुस्सम' कहा गया है।

जिसकी ऊँचाई छनवे हो, वह “चतुष्किष्कु'

प्रमाणवाला एवं जिसदी चारो दंष्टाएँ चन्द्रमाके

समान उज्ज्वल हों, वह “चतुर्दष्ट' होता है। अब

मैं तुमको 'चतुष्कृष्ण' पुरुषके विषयमे कहता हूँ।

उसके नयनतारक, भ्रू-युगल, श्मश्रु एवं केश कृष्ण

होते है! नासिका, मुख एवं कक्षयुग्ममें उत्तम

गन्धसे युक्त मनुष्य “चतुर्गन्‍्ध” कहलाता है। लिङ्ग,

ग्रीवा तथा जङ्खा-युगलके हृस्व होनेसे पुरुष * चतुरहस्व '

होता है । अङ्गुलिपर्व, नख, केश, दन्त तथा त्वचा

सुक्ष्म होनेपर पुरुष ' पञ्चसृष्म' एवं हनु, नेत्र,

ललाट, नासिका एवं वक्षःस्थलके विशाल होनेसे

* पञ्चदीर्घं" माना जाता है । वक्षःस्थल, कक्ष, नख,

नासिका, मुख एवं कृकाटिका (गर्दनकी घंटी) -

ये छः अङ्क उन्नत एवं त्वचा, केश, दन्त, रोम,

दृष्टि, नख एवं वाणी-ये सात स्लिग्ध होनेपर

शुभ होते हैं। जानुद्रय, ऊरुद्रय, पृष्ठ, हस्तद्वय एवं

नासिकाको मिलाकर कुल " आठ वंश!” होते हैं।

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