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इनके सिवा हाथीके पादरक्षक भी उतने ही हों,

अर्थात्‌ पाँच अश्च और पंद्रह पैदल। प्रतियोद्धा तो

हाथीके आगे रहते हैं और पादरक्षक हाथीके चरणोंके

निकट खड़े होते हैं। यह एक हाथीके लिये व्यूह-

विधान कहा गया है। ऐसा ही विधान रथव्यूहके

लिये भी समझना चाहिये''॥ ३७-३८ ३ ॥

एक गजव्यूहके लिये जो विधि कही गयी है,

उसीके अनुसार नौ हाथियोंका व्यूह बनाये। उसे

"अनीक" जानना चाहिये। (इस प्रकार एक अनीकमें

पैंतालीस अश्च तथा एक सौ पैंतीस पैदल सैनिक

प्रतियोद्धा होते हैँ ओर इतने ही अश्व तथा पैदल -

पादरक्षक हुआ करते हैँ ।) एक अनीकसे दूसरे

अनीककी दूरी पाँच धनुष बतायी गयी है।

इस प्रकार अनीक-विभागके द्वारा व्यृह- सम्पत्ति

स्थापित करे ॥ ३९-४० ॥

व्यृहके मुख्यतः पाँच अङ्ग है । १. "उरस्य

२. "कक्ष", ३. 'पक्ष'--इन तीनोंको एक समान

बताया जाता है । अर्थात्‌ मध्यभागमें पूर्वोक्त रीतिसे

नौ हाथियोंद्रार कल्पित एक अनीक सेनाको

"उरस्य" कहा गया है। उसके दोनों पार्श्रभागोंमें

एक-एक अनीककी दो सेनाएँ 'कक्ष' कहलाती

हैं। कक्षके बाह्मभागमें दोनों ओर जो एक-एक

अनीककी दो सेनाएँ हैं, वे 'पक्ष' कही जाती हैं।

इस प्रकार इस पाँच अनीक सेनाके व्यूहमें ४५

हाथी, २२५ अश्व, ६७५ पैदल सैनिक प्रतियोद्धा

और इतने ही पादरक्षक होते हैं। इसी तरह

उरस्य, कक्ष, पक्ष, मध्य, पृष्ठ, प्रतिग्रह तथा कोटि--

इन सात अड्भोंको लेकर व्यूहशास्त्रके विद्वानोंने

व्यूहको सात अड्भगोसे युक्त कहा है ` ॥ ४१५६ ॥

उरस्य, कक्ष, पक्ष तथा प्रतिग्रह आदिसे युक्त

शुक्रके मतमें यह व्यूहविभाग कक्ष और प्रकक्षसे

रहित है। अर्थात्‌ उनके मतमें व्यूहके पाँच ही

अद्ध हैं॥४२२॥

सेनापतिगण उत्कृष्ट वीर योद्धाओंसे घिरे रहकर

युद्धके मैदानमे खड़े हों । वे अभिनभावसे संघटित

रहकर युद्ध करें और एक-दूसरेकी रक्षा करते

रहें ॥ ४३ \॥

सारहीन सेनाको व्यृहके मध्यभागमें स्थापित

करना चाहिये । युद्धसम्बन्धी यन्त्र, आयुध और

औषध आदि उपकरणोंको सेनाके पृष्ठभागमें रखना

उचित है। युद्धका प्राण है नावक-राजा या

विजिगीषु। नावकके न रहने या मारे जानेपर

युद्धरत सेना मारी जाती है ॥ ४४ ‡ ॥

हदयस्थान ( मध्यभाग) -यें प्रचण्ड हाथियोंको

खड़ा करे। कक्षस्थानोंमें रथ तथा पक्षस्थानोंमें

घोड़े स्थापित करे। यह “मध्यभेदी' व्यूह कहा

गया है॥ ४५३ ॥

मध्यदेश (वक्ष:स्थान)-में घोड़ोंकी, कक्षभागोंमें

रथोंकी तथा दोनों पक्षोंके स्थानमें हाथियोंकी सेना

खड़ी करे। यह “अन्तभेदी' व्यूह बताया गया है।

रथकी जगह (अर्थात्‌ कक्षोंमें) घोड़े दे दे तथा

घोड़ोंकी जगह (मध्यदेशमें) पैदलोंको खड़ा कर

दे। यह अन्य प्रकारका 'अन्तभेदी' व्यूह है । रथके

अभाममें व्यूहके भीतर सर्वत्र हाथियोंकी ही नियुक्ति

करे (यह व्यामिश्र या घोल-मेल युद्धके लिये

उपयुक्त नीति है) ॥ ४६-४७ ई ॥

(रथ, पैदल, अश्च और हाथी --इन सबका

विभाग करके व्यूहमें नियोजन करे ।) यदि सेनाका

बाहुल्य हो तो वह व्यूह आवाप" कहलाता है।

मण्डल, असंहत, भोग तथा दण्ड--ये चार प्रकारके

यह व्यूहविभाग बृहस्पतिके मतके अनुसार है । | व्यूह “प्रकृतिव्यूह” कहलाते है । पृथ्वीपर रखे

१. व्यूह दो प्रकारके होते हैं-' शुद्ध ' और *व्यामित्र'। शुद्धके भी दो भेद हैं - प्रजच्पूष् तथा रथव्यूह । मूलमें जो विधान गज़व्यूहके

लिये कहा गया है, उसीका अतिदेश स्थव्यूहके लिये भी समझना चाहिये। व्यामिश्र आगे बतलायेंगे।

२. उरस्य. कक. पक्ष. प्रोरस्य, प्रकक्ष. प्रपक्ष तथा प्रतिग्रह-ये सपाङ्गं व्यूहवादियोंके मतमें व्यूहके सत्ता अद्गकि नाम हैं।

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