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दानका प्रथम भेद है। २. बिना दिये हो जो धन

किसीके द्वारा ले लिया गया हो, उसका अनुमोदन

करना (यथा- आपने अच्छा किया जो ले लिया।

मैंने पहलेसे ही आपको देनेका विचार कर लिया

था')--यह दानका दूसरा भेद है। ३. अपूर्व

द्रव्यदाने ( भाण्डागारसे निकालकर दिया गया नूतन

दान), ४. स्वयंग्राहप्रवर्तन (किसी दूसरेसे स्वयं

ही धन ले लेनेके लिये प्रेरित करना। यथा--

“अमुक व्यक्तिसे अमुक द्रव्य ले लो, वह तुम्हारा

हो हो जायगा') तथा ५. दातव्य ऋण आदिको

छोड़ देना या न लेना--इस प्रकार ये दानके पाँच

भेद कहे गये रै ॥ ४८-४९ ‡ ॥

सरह ओर अनुरागको दूर कर देना, परस्पर संघर्ष

(कलह) पैदा करना तथा धमकी देना --भेदज्ञ पुरुषोनि

भेदके ये तीन प्रकार बताये दै ॥ ५० ‡ ॥

वध, धनका अपहरण ओर बन्धन एवं ताडन

आदिक द्वारा क्लेश पहुँचाना-ये दण्डके तीन

भेद हैं। वधके दो प्रकार है --( १) प्रकाश (प्रकट)

ओर (२) अप्रकाश (गुप्त) । जो सब लोगोकि

देषपात्र हों, ऐसे दुष्टोंका प्रकटरूपमें वध करना

चाहिये; किंतु जिनके मारे जानेसे लोग उद्विग्न हो

उठें, जो राजाके प्रिय हों तथा अधिक बलशाली

हों, वे यदि राजाके हितमें बाधा पहुँचाते हैं तो

उनका गुप्तरूपसे वध करना उत्तम कहा गया है।

गुप्तरूपसे वधका प्रयोग यों करना चाहिये -विष

देकर, एकान्तमें आग आदि लगाकर, गुप्त

मनुष्योंद्वारा शस्त्रका प्रयोग कराकर अथवा शरीरमें

फोड़ा पैदा करनेवाले उबटन लगवाकर्‌ राज्यके

शत्रुको नष्ट करे। जो जातिमात्रसे भी ब्राह्मण हो,

उसे प्राणदण्ड न दे। उसपर सामनीतिका प्रयोग

करके उसे वशमें लानेकी चेष्टा करे ॥ ५१-५३॥

प्रिय वचन बोलना ' साम" कहलाता है । उसका

प्रयोग इस तरह करे, जिससे चित्तम अमृतका-सा

लेप होने लगे। अर्थात्‌ वह हृदयमें स्थान बना ले।

ऐसी स्त्रिग्ध दृष्टिसे देखे, मानो वह सामनेवालेको

प्रेमसे पी जाना चाहता हो तथा इस तरह बात करे,

मानो उसके मुखसे अमृतकी वर्षा हो रही हो ॥ ५४॥

जिसपर झूठा ही कलङ्क लगाया गया हो, जो

धनका इच्छुक हो, जिसे अपने पास बुलाकर

अपमानित किया गया हो, जो राजाका द्वेषी हो,

जिसपर भारी कर लगाया गया हो, जो विद्या

ओर कुल आदिक दृष्टिसे अपनेको सबसे बड़ा

मानता हो, जिसके धर्म, काम और अर्थ छिन-

भिन हो गये हों, जो कुपित, मानी और अनादृत

हो, जिसे अकारण राज्यये निर्वासित कर दिया

गया हो, जो पूजा एवं सत्कारके योग्य होनेपर

भी असत्कृत हुआ हो, जिसके धन तथा स्त्रीका

हरण कर लिया गया हो, जो मनमें वैर रखते हुए

भी ऊपरसे सामनीतिके प्रयोगसे शान्त रहता हो,

ऐसे लोगोंमें, तथा जो सदा शङ्कत रहते हों, उनमें,

यदि वे शत्रुपक्षके हों तो फूट डाले और अपने

पक्षे इस तरहके लोग हों तो उन्हें यत्रपूर्वक शान्त

करे। यदि शत्रुपक्षसे फूटकर ऐसे लोग अपने पक्षमें

आयें तो उनका सत्कार करे॥ ५५-५७ ३-॥

समान तृष्णाका अनुसन्धान (उभयपक्षको

समानरूपसे लाभ होनेकी आशाका प्रदर्शन), अत्यन्त

उग्रभय (मृत्यु आदिकी विभीषिका) दिखाना तथा

उच्चकोटिका दान और मान-ये भेदके उपाय

कहे गये हैं॥५८ ३ ॥

शत्रुकी सेनामें जब भेदनीतिद्वारा फूट डाल दी

जाती है, तब वह घुन लगे हुए काष्ठकी भाँति

विशीर्ण (छिन्न-भिन्‍न) हो जाती है। प्रभाव, उत्साह

तथा मन्त्रशक्तिसे सम्पन्न एवं देश-कालका ज्ञान

रखनेवाला राजा दण्डके द्वारा शत्रुओंका अन्त कर

दे। जिसमें मैत्रीभाव प्रधान है तथा जिसका विचार

कल्याणमय है, ऐसे पुरुषकों सामनीतिके द्वारा

खशमें करे ॥ ५९-६० ॥

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