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कामज व्यसन है ॥ ३५॥

वाणीकौ कठोरता लोकमें अत्यन्त उद्वेग पैदा

करनेवाली और अनर्थकारिणी होती रै । अर्थहरण,

ताडन ओर वध - यह तीन प्रकारका दण्ड असिद्ध

अर्थका साधक होनेसे सत्पुरुषो्रारा ' शासन ' कहा

गया है। उसको युक्तिसे ही प्राप्त कराये। जो

राजा युक्त (उचित) दण्ड देता है, उसकी

प्रशंसा की जाती है। जो क्रोधवश कठोर दण्ड

देता है, बह राजा प्राणियोमे उद्वेग पैदा करता

है। उस दण्डसे उद्विग्न हुए मनुष्य विजिगीषुके

शत्रुओंकी शरणमे चले जाते हैं, उनसे वृद्धिको

प्राप्त हुए शत्रु उक्त राजाके विनाशे कारण होते

हैं॥ ३६-३७ ६ ॥

दूषणीय मनुष्यके दूषण (अपकार)-के लिये

उससे प्राप्त होनेवाले किसी महान्‌ अर्थका

विघातपूर्वक परित्याग नीति- तत्वज्ञ विद्ठानोंद्वारा

*अर्थदूषण' कहा जाता है ॥ ३८३ ॥

दौड़ते हुए यान (अश्च आदि)-से गिरना,

भूख-प्यासका कष्ट उठाना आदि दोष मृगयासे

प्राप्त होते हैं। किसी छिपे हुए शत्रुसे मारे जानेकी

भी सम्भावना रहती है। श्रम या थक्ताउटपर विजय

पानेके लिये किसी सुरक्षित वनमें राजा शिकार

खेले॥ ३९ ‡ ॥

जूएमें धर्म, अर्थ और प्राणोकि नाश आदि

दोष होते हैं; उसमें कलह आदिकी भी सम्भावना

रहती है। स्त्रीसम्बन्धी व्यसनसे प्रत्येक कर्तव्य-

कारके करनेमें बहुत अधिक विलम्ब होता है--

ठीक समयसे कोई काम नहीं हो पाता तथा धर्म

और अर्थको भी हानि पहुँचती है। मद्यपानके

व्यसनसे प्राणोंका नाशतक हो जाता है, नशेके

कारण कर्तव्य और अकर्तव्यका निश्चय नहीं हो

पाता॥ ४०-४१ ॥

सेनाकी छावनी कहाँ और कैसे पड़नी चाहिये,

इस बातको जो जानता है तथा भले-बुरे निमित्त

* अग्निपुराण *

नजजा जजर

(शकुन )-का ज्ञान रखता है, वह शत्रुपर विजय

पा सकता है। स्कन्धावार (सेनाकी छावनी) -के

मध्यभागे खजानासहित राजाके ठहरनेका स्थान

होना चाहिये। राजभवनको चारों ओरसे घेरकर

क्रमशः मौल (पिता-पितामहके कालसे चली आती

हुई मौलिक सेना), भृत (भोजन और वेतन देकर

रखी हुई सेना), श्रेणि (जनपदनिवासिर्योका दल

अथवा कुविन्द आदिकी सेना), मित्रसेना, द्विषद्रल

(राजाकी दण्डशक्तिसे वशीभूत हुए सामन्तोकी

सेना) तथा आटबिक ( वन्य-प्रदेशके अधिपतिकौ

सेना)--इन सेनाओंको छावनी डाले ॥ ४२-४३ ॥

(राजा और उसके अन्तःपुरकी रक्षाकी

सुव्यवस्था करनेके पश्चात्‌) सेनाका एक चौथाई

भाग युद्धसग्जासे सुसज्जित हो सेनापतिको आगे

करके प्रयत्रपूर्वक छावनीके बाहर रातभर चक्कर

लगाये। वायुके समान वेगशाली घोड़ोंपर बैठे हुए

घुडसवार दूर सीमान्तपर विचरते हुए शत्रुकी

गतिविधिका पता लगाये । जो भी छावनीके भीतर

प्रवेश करें या बाहर निकल, सब राजाकौ आज्ञा

प्राप्त करके ही वैसा करें ॥ ४४-४५॥

साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल और

माया--ये सात उपाय हैं; इनका शत्रुके प्रति

प्रयोग करना चाहिये। इन उपायोंसे शत्रु वशीभूत

होता दै ॥ ४६॥

सामके पाँच भेद बताये गये है - १. दूसरेके

उपकारका वर्णन, २. आपसके सम्बन्धको प्रकट

करना (जैसे * आपकी माता मेरी मौसी हैं' इत्यादि),

३. मधुरबाणीमें गुण-कीर्तन करते हुए बोलना,

४, भावी उन्नतिको प्रकाशन (यथा--' ऐसा होनेपर

आगे चलकर हम दोनोंका बड़ा लाभ होगा

इत्यादि) तथा ५. मैं आपका हूँ--यों कहकर

आत्यसमर्पण करना ॥ ४७६ ॥

किससे उत्तम (सार), अधम (असार) तथा

मध्यम (सारासार) भेदसे जो द्रव्य- सम्पत्ति प्राप्त

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