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(१) जिस विग्रहसे बहुत कम लाभ होनेवाला

हो, (२) जो निष्फल हो, (३) जिससे फललप्राप्तिमें

संदेह हो, (४) जो तत्काल दोषजनक (विग्रहके

समय मित्रादिके साथ विरोध पैदा करनेवाला),

(५) भविष्यकालमें भी निष्फल, (६) वर्तमान

और भविष्यमें भी दोषजनक हो, (७) जो अज्ञात

बल-पराक्रमवाले शत्रुके साथ किया जाय एवं

(८) दूसरोंके द्वारा उभाड़ा गया हो, (९) जो

दूसरोंकी स्वार्थसिद्धिके लिये किंवा, (१०) किसी

साधारण स्त्रीको पानेके लिये किया जा रहा

हो, (११) जिसके दीर्घकालतक चलते रहनेकौ

सम्भावना हो, (१२) जो त्रषठ द्विजेकि साथ छेड़ा

गया हो, (१३) जो वरदान आदि पाकर

अकस्मात्‌ दैवबलसे सम्पने हुए पुरुषके साथ

छिड़नेवाला हो, (१४) जिसके अधिक बलशाली

मित्र हों, ऐसे पुरुषके साथ जो छिड्नेवाला हो,

(१५) जो वर्तमान कालमें फलद, किंतु भविष्ये

निष्फल हो तथा (१६) जो भविष्यमें फलद

किंतु वर्तमानमें निष्फल हो--इन सोलह प्रकारके

बिग्रहोंमें कभी हाथ न डाले। जो वर्तमान और

भ्रविष्यमें परिशुद्ध-पूर्णत: लाभदायक हो, वही

विग्रह राजाकों छेड़ना चाहिये॥ २०--२४ ॥

राजा जब अच्छी तरह समझ ले कि मेरी सेना

हष्ट-पुष्ट अर्थात्‌ उत्साह और शक्तिसे सम्पन्न है तथा

शत्रुकी अवस्था इसके विपरीत है, तब वह उसका

निग्रह करनेके लिये विग्रह आरम्भ करे। जब मित्र,

आक्रन्द तथा आक्रन्दासार-इन तोनोंकी राजाके

प्रति हृढ़भक्ति हो तथा शत्रुके मित्र आदि विपरीत

स्थितिमें हों अर्थात्‌ उसके प्रति भक्तिभाव न रखते

हों, तब उसके साथ विग्रह आरम्भ करे॥ २५५॥

(जिसके बल एवं पराक्रम उच्च कोटिके हों,

जो विजिगीषुके गुणोंसे सम्पन्न हो और विजयकी

अभिलाषा रखता हो तथा जिसकी अमात्यादि

प्रकृति उसके सद्गुणोसे उसमें अनुरक्त हो, ऐसे

राजाका युद्धके लिये यात्रा करना 'यान' कहलाता

है।) विगृह्यगमन, संधायगमन, सम्भूयगमन, प्रसङ्गतः

गमन तथा उपेक्षापूर्वक गमन--ये नीतिज्ञ पुरुषोंद्वारा

यानके पाँच भेद कहे गये हैँ * ॥ २६२ ॥

* बत्दवान्‌ राजा जब समस्त शगरओके गा बिग्रह आरम्भ करके युद्धके लिये यात्रा करता है, तव उसको उस यात्राको

जीतिशास्त्रके चिद्वान्‌ ' विशृक्मगमन' कहते हैं; अधया शत्रुके समस्त मित्रोंकों अर्धात्‌ उसके आगे और पोछेके शुभचिन्तकोंकों अपने सामने

और पौछेवाले मिश्रोंद्रारा छेड़े गये विग्रहे फैसाकर शत्रुपर जो चढ़ाई की जाती है, उसे ' विगृहागमन * या “विगृह्ययान' कहते हैं। जय

अपनो चेष्टामें अवशेध उत्पनन करनेवाले सभी प्रकारके शत्रु ओके साथ संधि करके जो एकमात्र किसी अन्य जत्रुपर आक्रमण किया

जाए है, वह 'संधायग्मत्र' कहा जात्व है। अथवा अपने पार्श्लिग्राह संझ्वाले पृष्ठवर्तों शत्रुके साथ संधि करके जो अन्यद्र --अपने

सामनेवाले शत्रुपर आक्रमणकरे लिये यात्रा को जालो है, पिजिगौपुरौ उस याको भौ 'संधायगमत” कहते हैं। सामूहिक लाभमें

समायरूपसे भागौ होनेवाले स्तमन्तोकिः साथ, जो शक्ति और शुद्धभावसे युक हों, एकौभूत होक --मिलकर जो किसी एक ही ज्ञत्रुपर

चढ़ाई कौ जातो है, उसका नाम ' सम्भूयपनन ' है। अथवा ओ विजियोपु और उसके शत्रु दोजोंको प्रकृतियोंका विनाश करनेके कारण

दोनोंका शत्रु हो, उसके प्रति विजिगोपु तथा शत्रु दोनोंका। मिलकर युद्धके लिये यात्रा करना 'सम्भूगगमन” है। इसके उदाहरण हैं--सूर्य और

हनुमान्‌ । हजुपान्‌ काल्यावस्थामें लोहित सूर्यम्रण्डलको उदित हुआ देख, ' यह क्या है '--इस बातकों जाननेके लिये बालोचित चफ़्लतावश

उछलकर उतने फ्कड़नेके लिये आगे भदे। तिकट पहुँचनेपर उन्होंने देखा कि भानुको ग्रहण करनेके लिये स्वर्भानु (राहु) आया है।

फिर तो उसे हो अपना प्रतिट्वद्दी जान हनुमानूजों उसपर टूट पड़े। उस समय सूर्यने भी अपने प्रमुख शत्रु राहुकों दबानेके लिये अपने

ओले-भाले ज्ञत्रु हतुमाद॒जीका हो साथ दिया। एकपर आक्रमण करनेके लिये प्रस्थित हुआ राजा यदि प्रसङ्गवश उसके विरोधी दूसरे

पक्षको अपने आक्रमणका लक्ष्य बना लेता है तो उम्तफों उस यात्राको 'प्रसज्गतःगमत्र' या 'प्रसड्रयात' कहते हैं। इसके हृशान्त हैं राजा

शल्य वे दुर्योधवपर पाण्डवपक्षसे आक्रमणके लिये चले थे, किंतु मागमे दुर्योधनके अति सत्कारसे प्रसन्‍न हो उसे यर मनेक लिये

कहका उसकी प्रार्थनासे उसोके सेतापति हो गये और अपने भावजे युधिद्चिरको हौ अपने आक्रमणका लक्ष्य वनाया। शत्रुके प्रति

आक्रमण करनेवाले चिजिगोषुको रोकनेके लिये यदि उस शत्रुफे कलयान्‌ मित्र आ पहुँचें तो उस्र शत्रुकी उपेक्षा करके उसके उन मित्रोंपर

हो चढ़ाई करना 'उपेक्षायान' कहलाता है जैसे इन्द्रकी आज्ञासे निवातकवाचोंका वध करनेके लिये प्रस्थित हुए अर्जुनको रोकनेके

निभित्त जब हिरण्यपुरवासों 'कालकंज' नामक अमुर आ पहुँचे, तब अर्जुन उन तिवातकवचॉकी उपेक्षा करके कालकंजोंपर हो टूट

पड़े और उनको परास्त करनेके बाद ही उन्होंने निधातकवचोंका वध किया।

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