* अध्याय २३९ *
पभिलनेवाले तीन प्रकारके फल हैं। चार प्रकारके
मित्र जानने चाहिये - ओरस( माता-पिताके सम्बन्धसे
युक्त), मित्रताके सम्बन्धसे बंधा हुआ, कुलक्रमागत
तथा संकटसे बचाया हुआ। सत्यता (झूठ न
बोलना), अनुराग ओर दुःख-सुखमे समानरूपसे
भाग लेना-ये मित्रके गुण हैं॥ ३४-३७॥
अब मैं अनुजीवी (राजसेवकः) जनोंके बर्तावका
वर्णन करूँगा। सेवकोचित गुणोंसे सम्पन्न पुरुष
राजाका सेवन करे। दक्षता (कौशल तथा
शीघ्रकारिता), भद्गरता (भलमनसाहत या लोकप्रियता),
दृता (सुस्थिर स्नेह एवं कर्मोमें रृढ़तापूर्वक लगे
रहना), क्षमा (निन्दा आदिको सहन करना),
क्लेशसहिष्णुता (भूख-प्यास आदिके क्लेशको सहन
करनेकी क्षमता), संतोष, शील और उत्साह -
ये गुण अनुजीवीको अलंकृत करते हैँ ॥ ३८ \॥
सेवक यथासमय न्यायपूर्वकं राजाकौ सेवा
करे; दूसरेके स्थानपर जाना, क्रूरता, उद्रण्डता या
असभ्यता और ईर्ष्या -इन दोषोंकों वह त्याग दे।
जो पद या अधिकारे अपनेसे बडा हो, उसका
विरोध करके या उसकी बात काटकर राजसभामें
न बोले। राजाके गुप्त कर्मों तथा मन्त्रणाको कहीं
प्रकाशित न करे। सेवकको चाहिये कि वह अपने
प्रति स्नेह रखनेवाले स्वामीसे ही जीविका प्राप्त
करनेकी चेष्टा करे; जो राजा विरक्त हो- सेवकसे
घृणा करता हो, उसे सेवक त्याग दे ॥ ३९-४१॥
यदि राजा अनुचित कार्ये प्रवृत्त हो तो उसे
मना करना और यदि न्याययुक्तं कर्ममें संलग्र हो
तो उसमें उसका साथ देना- यह थोड़ेमें बन्धु, पित्र
और सेवर्कोका श्रेष्ठ आचार बताया गया है ॥ ४२॥
राजा मेघकी भाँति समस्त प्राणिर्योको
आजीविका प्रदान करनेवाला हो। उसके यहाँ
आयके जितने द्वार (साधन) हों, उन सबपर वह
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विश्वस्त एवं जाँचे-परखे हुए लोगोँको नियुक्त
करे। (जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीसे जल
लेता है, उसी प्रकार राजा उन आयुक्त पुरुषोंद्वारा
धन ग्रहण करे)॥ ४३ ॥
(जिन्हें उन-ठन कर्मोके करनेका अभ्यास
तथा यथार्थ ज्ञान हो, जौ उपधाद्वारा शुद्ध प्रमाणित
हुए हों तथा जिनके ऊपर जाने-समझे हुए गणक
आदि करणवर्गकी नियुक्ति कर दी गयी हो तथा)
जो उद्योगसे सम्पन्त हों, ऐसे ही लोगोंकों सम्पूर्ण
कर्मोपिं अध्यक्ष बनाये। खेती, व्यापारियोंके उपयोगमें
आनेवाले स्थल और जलके मार्ग, पर्वत आदि
दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर एवं बाँध आदि), कुझरबन्धन
(हाथी आदिके पकड़नेके स्थान), सोने-चाँदी
आदिकी खानें, बनमें उत्पन्न सार-दारु आदि
(साखू, शीशम आदि)-की निकासीके स्थान तथा
शून्य स्थानोंको बसाना--आयके इन आठ द्वारोंको
*अष्टवर्ग' कहते हैं। अच्छे आचार-व्यवहारवाला
राजा इस अष्टवर्गकी निरन्तर रक्षा करें॥ ४४-४५॥
आयुक्तक (रक्षाधिकारी राजकर्मचारी), चोर,
शत्रु, राजाके प्रिय सम्बन्धी तथा राजाके लोभ--
इन पाँचोंसे प्रजाजनोंको पाँच प्रकारका भव प्राप्त
होता है। इस भयका निवारण करके राजा उचित
समयपर प्रजासे कर ग्रहण करे। राज्यके दो भेद
हैं-बाह्य और आध्यन्तर। राजाका अपना शरीर
ही 'आधभ्यन्तर राज्य' है तथा राष्ट या जनपदको
"बाह्म राज्य” कहा गया है। राजा इन दोनोंकी
रक्षा करे ॥ ४६-४७॥
जो पापी राजाके प्रिय होनेपर भी राज्यको
हानि पहुँचा रहे हों, वे दण्डनीय हैं। राजा उन
सबको दण्ड दे तथा विय आदिसे अपनी रक्षा
करे। स्त्रियोंपर, पुत्रोंपर तथा शत्रुओंपर कभी
विश्वास न करे॥४८॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें "राजधर्मकथनं " नामक
दो सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुजा॥ २३९ ॥
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