जलकी अधिकता हो, जिसे किसी पर्वतका सहारा
प्राप्त हो, जहाँ शूद्रों, कारीगरों और वैश्योंकी
बस्ती अधिक हो, जहाँके किसान विशेष उद्योगशील
एवं बड़े-बड़े कार्योका आयोजन करनेवाले हों,
जो राजाके प्रति अनुरक्त, उनके शत्रुओंसे द्वेष
रखनेवाला और पीड़ा तथा करका भार सहन
करनेमें समर्थ हो, दृष्ट-पुष्ट एवं सुविस्तृत हो,
जहाँ अनेक देशोंके लोग आकर रहते हों, जो
धार्मिक, पशु-सम्पत्तिसे भरा-पूरा तथा धनी हो
और जहाँके नायक (गाँवोंके मुखिया) मूर्ख और
व्यसनग्रस्त हों, ऐसा जनपद राजाके लिये प्रशस्त
कहा गया है। (मुखिया मूर्ख और व्यसनी हो तो
वह राजाके विरुद्ध आन्दोलन नहीं कर
सकता) ॥ २६-२७॥
जिसकी सीमा बहुत बड़ी एवं विस्तृत हो,
जिसके चारों ओर विशाल खाइयाँ बनी हों, जिसके
प्राकार (परकोटे) और गोपुर (फाटक) बहुत
ऊँचे हों, जो पर्वत, नदी, मरुभूमि अथवा
जंगलका आश्रय लेकर बना हों, ऐसे पुर (दुर्ग)-
में राजाको निवास करना चाहिये। जहाँ जल,
धान्य और धन प्रचुरमात्रामें विद्यमान हों, वह दुर्ग
दीर्घकालतक शत्रुके आक्रमणका सामना करनेमें
समर्थ होता है। जलमय, पर्वतमय, वुक्षमय, ऐरिण
(उजाड़ या बीरान स्थानपर बना हुआ) तथा
धान्वन (मरुभूमि या बालुकामय प्रदेशमें स्थित)--
ये पाँच प्रकारके दुर्ग हैं। ८ दुर्गका विचार करनेवाले
उत्तम बुद्धिमान् पुरुषोंने इन सभी दुर्गोको प्रशस्त
बतलाया है) ॥ २८-२९॥
[जिसमे आव अधिके हो और खर्च कम,
अर्थात् जिसमें जमा अधिक होता हो और जिससमेंसे
धनको कम निकाला जाता हो, जिसकी ख्याति
खूब हो तथा जिसमें धनसम्बन्धी देवता (लक्ष्मी,
कुवेर आदि)-का सदा पूजन किया जाता हो, जो
मनोवाच्छित द्रव्योंसे भरा-पूरा हो, मनोरम हो
ओर] विश्वस्त जनोंकौ देख-रेखमें हो, जिसका
अर्जन धर्म एवं न्यायपूर्वक किया गवा हो तथा
जो महान् व्ययको भी सह लेनेमें समर्थ हो-
ऐसा कोष श्रेष्ठ माना गया है। कोषका उपयोग
धर्मादिकी वृद्धि तथा मूल्योके भरण-पोषण आदिके
लिये होना चाहिये ॥ ३०॥
जो बाप-दादोकि समयसे ही सैनिक सेवा
करते आ रहे हों, वशमें रहते (अनुशासन मानते)
हों, संगठित हों, जिनका वेतन चुका दिया जाता
हो - बाकी न रहता हो, जिनके पुरुषार्थकी प्रसिद्धि
हो, जो राजाके अपने ही जनपदमें जन्मे हों,
युद्धकुशल हों और कुशल सैनिकोके साथ रहते
हों, नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हों,
जिन्हें नाना प्रकारके युद्धोंमें विशेष कुशलता प्राप्त
हो तथा जिनके दलमें बहुत-से योद्धा भरे हों,
जिन सैनिकोंद्वार अपनी सेनाके घोड़े और हाधिरयोकी
आरती उतारी जाती हो, जो परदेश-निवास,
युद्धसम्बन्धी आयास तथा नाना प्रकारके क्लेश
सहन करनेके अभ्यासी हों तथा जिन्होनि युद्धमें
बहुत श्रम किया हो, जिनके मनमें दुविधा न हो
तथा जिनमें अधिकांश कषत्रिय जातिके लोग हों,
ऐसी सेना या सैनिक दण्डनीतिवेत्ताओंके मतमें
श्रेष्ठ है॥ ३१--३३॥
जो त्याग (अलोभ एवं दूसरॉके लिये सब
कुछ उत्सर्ग करनेका स्वभाव), विज्ञान (सम्पूर्ण
शास्त्रोंमें प्रवीणता) तथा सत्त्व (विकारशून्यता)--
इन गुणोंसे सम्पन्न, महापक्ष (महान् आश्रय एवं
बहुसंख्यक बन्धु आदिके वसि सम्पन्न), प्रियंवद
(मधुर एवं हितकर वचन बोलनेवाला), आयतिक्षम
(सुस्थिर स्वभाव होनेके कारण भविष्यकाले भी
साथ देनेवाला), अद्ध (दुविधामें न रहनेवाला)
तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न हो--ऐसे पुरुषको अपना
मित्र बनाये। मित्रके आनेपर दूरसे ही अगवानीमें
जाना, स्पष्ट एवं प्रिय वचन बोलना तथा सत्कारपूर्वक
'मनोवाज्छित वस्तु देना--ये मित्रसंग्रहके तीन प्रकार
हैं। धर्म, काम और अर्थकी प्राप्ति--ये मित्रसे