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* अध्याय २३९ *

आदिमे सदैव तत्पर रहना), वितर्क (विचार),

ज्ञाननिश्चय (यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है--इस

प्रकारका निश्चय), दृढ़ता तथा मन्त्रगुप्ति ( कार्यसिद्धि

होनेतक मन््रणाको अत्यन्त गुप्त रखना)--ये

“अन्त्रिसम्पत्‌' के गुण कहे गये हैं॥ १५३ ॥

पुरोहितको तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद,

सामवेद) तथा दण्डनीतिके ज्ञानमें भी कुशल

होना चाहिये; वह सदा अधर्ववेदोक्त विधिसे

राजाके लिये शान्तिकर्म एवं पुष्टिकर्मका सम्पादन

करे ॥ १६ ३॥

बुद्धिमान्‌ राजा तत्तद्‌ विद्याके विद्वानोंद्वारा उन

अमात्योंके शास्त्रज्ञान तथा शिल्पकर्म-इन दो

गुणोंकी परीक्षा करेः। यह परोक्ष या आगम

प्रमाणद्वारा परीक्षण है ॥ १७ ६॥

कुलीनता, जन्मस्थान तथा अवग्रह (उसे

नियन्त्रित रखनेवाले बन्धुजन) - इन तीन बातोंकी

जानकारी उसके आत्मीयजनोंके द्वारा प्राप्त करे।

(यहाँ भी आगम या परोक्ष प्रमाणका ही आश्रय

लिया गया है।) परिकर्म (दुर्गादि-निर्माण)-में

दक्षता (आलस्य न करना), विज्ञान (बुद्धिसे

अपूर्व बातकों जानकर बताना) और धारयिष्णुता

(कौन कार्य हुआ और कौन-सा कर्म शेष रहा

इत्यादि बातोंकों सदा स्मरण रखना) --इन तीन

गुणोकी भी परीक्षा करे। प्रगल्भता (सभा आदिमे

निर्भीकता), प्रतिभा (प्रतयुत्सनमतिता), वाग्मिता

(प्रवचनकौशल) तथा सत्यवादिता --इन चार

गुर्णोको बातचीतके प्रसङ्गे स्वयं अपने अनुभवसे

जाने ॥ १८-१९ ॥

उत्साह (शौर्यादि), प्रभाव, क्लेश सहन करनेकी

क्षमता, धैर्य, स्वामिविषयक अनुराग और स्थिरता-

१. यही अभिप्राय लेकर कौरिल्यने कहा है--

पुरोहितम्‌

परकुर्वीत ।' (कौटि० अर्थं १।९।५०)

गुणोंकी परीक्षा आपत्तिकाले करे। राजाके

प्रति दृढ़भक्ति, मैत्री तथा आचार-विचारकी शुद्धि --

इन गुर्णोको व्यवहारसे जाने ॥ २०-२१॥

आसपास एवं पड़ोसके लोगोंसे बल, सत्व

(सम्पत्ति ओर विपत्तिमे भी निर्विकार रहनेका

स्वभाव), आरोग्य, शील, अस्तब्धता (मान और

दर्पका अभाव) तथा अचापल्य ( चपलताका अभाव

एवं गम्भीरता) -इन गुणोंको जाने। वैर न करनेका

स्वभाव, भद्रता (भलमनसाहत) तथा क्षुद्रता

(नौचता)-को प्रत्यक्ष देखकर जाने । जिनके गुण

और बर्ताव प्रत्यक्ष नहीं हैं, उनके कार्योंसे सर्वत्र

उनके गुणोंका अनुमान करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥

जहाँ खेतीकी उपज अधिक हो, विभिन

वस्तुओंकी खानें हों, जहाँ विक्रमके योग्य तथा

खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रामें उपलब्ध होते हों, जो

गौओंके लिये हितकारिणी (घास आदिसे युक्त)

हो, जहाँ पानीकी बहुतायत हो, जो पवित्र जनपदोंसे

घिरी हुई हो, जो सुरम्य हो, जहाँके जंगलोंमें

हाथी रहते हों, जहाँ जलमार्ग (पुल आदि) तथा

स्थलमार्ग (सड़कें) हों, जहाँको सिंचाई वर्षापर

निर्भ न हो अर्थात्‌ जहाँ सिंचाईके लिये प्रचुर

मात्रामें जल उपलब्ध हो, ऐसी भूमि ऐश्वर्य-

वृद्धिके लिये प्रशस्त मानी गयी है॥ २४-२५॥

(*जो भूमि कंकरीली ओर पथरीली हो, जहाँ

जंगल-ही-जंगल हों, जो सदा चोरों और लुटेरोके

भयसे आक्रान्त हो, जो रूक्ष (ऊसर) हो, जहाँके

जंगलोमें काँटेदार वृक्ष हों तथा जो हिंसक जन्तुओंसे

भरी हो, वह भूमि नहींके बराबर है।*)

(जहाँ सुखपूर्वक आजीविका चल सके, जो

पूर्वोक्त उत्तम भूमिके गुणोंसे सम्पन्न हो) जहाँ

शङ्गवेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च च अभिविनीतमापदां दैवमानुपीणाम्‌ आयर्यभिरुपायै: प्रतिकर्तारं

२. राजाओंके लिये तीन प्रताण है - प्रत्यक्ष, परोक्ष ओर अनुमान । जैसा कि कौरिल्यका कथन है ~

*प्रत्यक्षपरोश्षानुपेयां हि राजवृत्तिः ।" इनमें स्वयं देखा हुआ 'प्रत्यक्ष', दूसरोंके द्वारा कथिते " परोक्ष" तथा किये गये कर्मसे अकृत

कर्मका अवेक्षण ' अनुमान" है।

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