आन्वीक्षिकी 'से आत्मज्ञान एवं व्रस्तुके यथार्थ
स्वभावका बोध होता है। धर्म ओर अधर्मका
ज्ञान 'वेदत्रयी पर् अवलम्बित है, अर्थ और अनर्थ
“वार्ता'के सम्यक् उपयोगपर निर्भर हैं तथा न्याय
और अन्याय 'दण्डनीति 'के समुचित प्रयोग और
अप्रयोगपर आधारित हैं॥८-९॥
किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना-कष्ट न
पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्यभाषण करना,
बाहर और भीतरसे पवित्र रहना एवं शौचाचारका
पालन करना, दीनोंके प्रति दयाभांव रखना तथा
क्षमा (निन्दा आदिको सह लेना) - ये चारों वर्णो
तथा आश्रमोके सामान्य धर्म कहे गये हैँ । राजाको
चाहिये कि वह प्रजापर अनुग्रह करे और सदाचारके
पालनमें संलग्र रहे। मधुर वाणी, दीनोंपर दया,
देश-कालकी अपेक्षासे सत्पात्रको दान, दीनो ओर
शरणागतोंकी रक्षा" तथा सत्पुरुषोंका सङ्ग-ये
सत्पुरुषोके आचार हँ । यह आचार प्रजासंग्रहका
उपाय है, जो लोकमें प्रशंसित होनेके कारण श्रेष्ठ
है तथा भविष्ये भी अभ्युदयरूप फल देनेवाला
होनेके कारण हितकारक है । यह शरीर मानसिक
चिन्ताओं तथा रोगोंसे घिरा हुआ है। आज या
कल इसका विनाश निश्चित है । ऐसी दशामें इसके
लिये कौन राजा धर्मके विपरीत आचरण
करेगा ?॥ १०--१२२॥
राजाको चाहिये कि वह अपने लिये सुखकी
इच्छा रखकर दीन-दुखी लोगोको पीडा न दे;
क्योंकि सताया जानेवाला दीन-दुखी मनुष्य
दुःखजनित क्रोधके द्वारा अत्याचारी राजाका विनाश
कर डालता है। अपने पूजनीय पुरुषको जिस
तरह सादर हाथ जोडा जाता है, कल्याणकामी
राजा दुष्टजनको उससे भी अधिक आदर देते हुए
हाथ जोड । (तात्पर्य यह है कि दुष्टको सामनीतिसे
ही वशमें किया जा सकता है ।) साधु सुदं तथा
दुष्ट शत्रुओंके प्रति भी सदा प्रिय वचन हौ बोलना
चाहिये । प्रियवादी ' देवता" कहे गये हैं और
कटुवादी ' पशु'॥ ६३--१५१॥
बाहर और भीतरसे शुद्ध रहकर राजा आस्तिकता
(ईश्वर तथा परलोकपर विश्वास)-द्वारा अन्तःकरणको
पवित्र बनाये और सदा देवताओंका पूजन करे ।
गुरुजनोंका देवताओंके समान ही सम्मानं करे
तथा सुहर्दोको अपने तुल्य मानकर उनका भलीभाँति
सत्कारं करे । वह अपने ऐश्वर्यकी रक्षा एवं वृद्धिके
लिये गुरुजर्नोको प्रतिदिन प्रणामद्वारा अनुकूल बनाये ।
अनूचान (साङ्गवेदके अध्येता) की -सी चेष्टाओंद्वारा
विद्यावृद्ध सत्पुरुषोंका साम्मुख्य प्राप्त करे । सुकृतकर्म
(यज्ञादि पुण्यकर्म तथा गन्ध-पुष्पादि-समर्पण)-
द्वारा देवताओंको अपने अनुकूल करें। सद्धाव
(विश्वास)-द्वाया मित्रका हृदय जीते, सम्भ्रम (विशेष
आदर)-से बान्धवों (पिता और माताके कुलोंके
बडे-बूढ़ों )-को अनुकूल बनाये। स्त्रीको प्रेमसे
तथा भृत्यवर्गकों दानसे वशमें करे। इनके अतिरिक्त
जो बाहरी लोग हैं, उनके प्रति अनुकूलता दिखाकर
उनका हृदय जीते॥ १६-१८ ३ ॥
दूसरे लोगोंके कृत्योकौ निन्दा या आलोचना
न करना, अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुरूप धर्मका
निरन्तर पालन, दीनोंके प्रति दया, सभी लोक-
व्यवहारोंमें सबके प्रति मीठे वचन बोलना, अपने
अनन्य मित्रका प्राण देकर भी उपकार करनेके
लिये उद्यत रहना, घरपर आये हुए मित्र या अन्य
सज्जनोको भी हदयसे लगाना--उनके प्रति अत्यन्त
स्नेह एवं आदर प्रकट करना, आवश्यकता हो तो
उनके लिये यथाशक्ति धन देना, लोगोंके कटु
* यहाँ यह प्रश्न होता है कि 'शरणागतोंकी रक्षा तो दयाका हौ कार्य है, अतः दयासे हौ यह पिद है, फिर उसका अलग कथन
क्यों किया गया ?' इसके उत्तरमें निवेटन है कि दयाके दो भेद हैं--' उत्कृष्ठा' और " अनुल्कृष्टा ।' इतमें जो उत्कृष्टा दया है. उसके द्वारा
दौनौंका उद्धार होता है और अनुत्कृष्टा दयासे उपगत या शरणागतक्ती रक्षा को जाती है--यही सूचित करनेके लिये उसका अलग
प्रतिपादन किया गया है।