* अष्याव २३७
भी कैलानी चाहिये। विजयकी पताकाएँ | है । उसके प्रति देशोचितं आचारादिका पालन
दिखानी चाहिये, बाजोंका भयंकर समारोह करना
चाहिये । इस प्रकार जब युद्धमें विजय प्राप्त हो
जाय तो देवताओं और ब्राह्मणोंकी पूजा करनी
चाहिये। अमात्यके द्वारा किये हुए युद्धमें जो रत्न
आदि उपलब्ध हों, वे राजाकों ही अर्पण करने
चाहिये। शत्रुकी स्त्रियोंपर किसीका भी अधिकार
नहीं होता। स्त्री शत्रुकी हो तो भी उसको रक्षा
ही करनी चाहिये। संग्राममें सहायकोंसे रहित
शत्रुको प्राकर उसका पुत्रकी भाँति पालन करना
चाहिये। उसके साथ पुनः युद्ध करना उचित नहीं
करना कर्तव्य है॥६१-६४॥
युद्धमें विजय पानेके पश्चात् अपने नगरमें जाकर
*ध्रुब' संज्ञक नक्षत्र (तीनों उत्तरा ओर रोहिणी)-
में राजमहलके भीतर प्रवेश करें। इसके बाद
देवताओंका पूजन और सैनिककि परिवारके भरण-
पोषणका प्रबन्ध करना चाहिये। शत्रुके यहाँसे
मिले हुए धनका कुछ भाग भृत्योंको भी
बाँट दे। इस प्रकार यह रणकी दीक्षा बतायी गयी
है; इसके अनुसार कार्य करनेसे राजाको निश्चय
ही विजयकी प्राप्ति होती है॥६५-६६॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'रणदीक्षा-वर्णत” नामक
दो सौ छत्तीसर्वाँ अध्याय पूछ हुआ॥ २२६ ॥
न
दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय
लक्ष्मीस्तोत्र और उसका फल
पुष्कर कहते हैं-- परणशुरामजी ! पूर्वकाले
इन्द्रने राज्यलक्ष्मीकी स्थिरताके लिये जिस प्रकार
भगवती लक्ष्मीकी स्तुति की थी, उसी प्रकार
राजा भी अपनी विजयके लिये उनका स्तवन
करे॥ १॥
इन्द्र बोले-- जो सम्पूर्ण लोकोंकी जननी हैं,
समुद्रसे जिनका आविर्भाव हुआ है, जिनके नेत्र
खिले हुए कमलके समान शोभायमान हैं तथा जो
भगवान् विष्णुके वक्षःस्थले विराजमान हैं, उन
लक्ष्मीदेवीको मैं प्रणाम करता हूँ। जगत्को पवित्र
करनेवाली देवि! तुम्हीं सिद्धि हो और तुम्हीं
स्वधा, स्वाहा, सुधा, संध्या, रात्रि, प्रभा, भृति,
मेधा, श्रद्धा ओर सरस्वती हो। शोभामयी देवि!
तुम्हीं यज्ञविद्या, महाविद्या, गुह्यविद्या तथा मोक्षरूप
फल प्रदान करनेवाली आत्मविद्या हो । आन्वीक्षिकी
(दर्शनशास्त्र), त्रयी (ऋक्, साम, यजु), वार्ता
(जीविका-प्रधान कृषि, गोरक्षा ओर वाणिज्य
कर्म) तथा दण्डनीति भी तुम्हीं हो। देवि! तुम
स्वयं सौम्यस्वरूपवाली ( सुन्दरी) हो; अतः तुमसे
व्याप्त होनेके कारण इस जगत्का रूप भी सौम्य-
मनोहर दिखायी देता है । भगवति! तुम्हारे सिवा
दूसरी कौन स्त्री है, जो कौमोदकी गदा धारण
करनेवाले देवाधिदेव भगवान् विष्णुके अखिल
यज्ञमय विग्रहको, जिसका योगीलोग चिन्तन करते
है, अपना निवासस्थान बना सके । देवि! तुम्हारे
त्याग देनेसे समस्त त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी;
किंतु इस समय पुनः तुम्हारा ही सहारा पाकर यह
समृद्धिपूर्णं दिखायी देती है। महाभागे! तुम्हारी
कृपादृष्टिसे ही मनुरष्योको सदा स्त्री, पुत्र, गृह,
मित्र और धन-धान्य आदिकी प्राप्ति होती है।
देवि ! जिन पुरुषोंपर आपकी दयादृष्टि पड़ जाती
है, उन्हें शरीरकौ नीरोगता, ऐश्वर्य, शत्रुपक्षकी
हानि और सब प्रकारके सुख-कुछ भी दुर्लभ
नहीं हैं। मातः! तुम सम्पूर्ण भूतोंकी जननी और
देवाधिदेव विष्णु सबके पिता हैं। तुमने और
भगवान् विष्णुने इस चराचर जगत्को व्याप्त कर
रखा है। सबको पवित्र करनेवाली देवि! तुम
मेरी मान-प्रतिष्ठा, खजाना, अन-भण्डार, गृह,