“छायामान' कहा गया है, जो सभी कर्मोके लिये
विहित है। जन्म-लप्रमे तथा सामने इन्द्रधनुष
उदित हुआ हो तो मनुष्य यात्रा न करे। शुभ
शकुन आदि होनेपर श्रीहरिका स्मरण करते हुए
विजययात्रा करनी चाहिये ॥ ८--१० ३ ॥
परशुरामजी ! अब मैं आपसे पण्डलका विचार
बतलाऊँगा; राजाकौ सब प्रकारसे रक्षा करनी
चाहिये। राजा, मन्त्री, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र
और जनपद - ये राज्यके सात अड्भ बतलाये जाते
है । इन सात अङ्गे युक्त राज्ये विध्न डालनेवाले
पुरुषोंका विनाश करना चाहिये। राजाको उचित
है कि अपने सभी मण्डलेमिं वृद्धि करे। अपना
मण्डल ही यहाँ सबसे पहला मण्डल है।
सामन्त- नरेशोंको ही उस मण्डलका शत्रु जानना
चाहिये । * विजिगीषु" राजाके सामनेका सीमावर्ती
सामन्त उसका शत्रु है । उस शत्रु-राज्यसे जिसकी
सीमा लगौ है, वह उक्त शत्रुका शत्रु होनेसे
विजिगीषुका मित्र है। इस प्रकार शत्रु, मित्र,
अरिमित्र, पित्रमित्रे तथा अरिमित्र-मित्र-ये पाँच
मण्डलके आगे रहनेवाले है । इनका वर्णन किया
गया; अब पीछे रहनैवालोको बताता हूँ;
सुनिये॥ ११--१५३॥
पीछे रहनेवालोंमें पहला " पार्ष्णिग्राह ' है और
उसके पीछे रहनेवाला "आक्रन्द ' कहलाता है।
तदनन्तर इन दोनोंके पीछे रहनेवाले 'आसार'
होते हैं, जिन्हें क्रमशः ' पाष्णिग्राहासार' और
*आक्रन्दासार' कहते हैं। नरश्रेष्ठ ! विजयकी इच्छा
रखनेवाला राजा, शत्रुके आक्रमणसे युक्त हो अथवा
उससे मुक्त, उसकी विजयके सम्बन्धमें कुछ
निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। विजिगीषु
तथा शत्रु दोनोंके असंगठित रहनेपर उनका निग्रह
और अनुग्रह करनेमें समर्थ तरस्थ राजा “मध्यस्थ'
कहलाता है। जो बलवान् नरेश इन तीनोंके निग्रह
और अनुग्रहमें समर्थ हो, उसे “उदासीन' कहते
हैं। कोई भी किसीका शत्रु या मित्र नहीं है;
सभी कारणवश ही एक-दूसरेके शत्रु और मित्र
होते हैं। इस प्रकार मैंने आपसे यह बारह राजाओंके
मण्डलका वर्णन किया है॥ १६--२०॥
शत्रुओकि तीन भेद जानने चाहिये--कुल्य,
अनन्तर और कृत्रिम। इनमें पूर्व पूर्व शत्रु भारी
होता है। अर्थात् “ कृत्रिम ' कौ अपेक्षा * अनन्तर"
और उसकी अपेक्षा ' कुल्य ' शत्रु बड़ा माना गया
है; उसको दबाना बहुत कठिन होता है । ' अनन्तर
(सीमाप्रान्तवतीं ) शत्रु भी मेरी समझमें कृत्रिम"
ही है। पार््णिग्राह राजा शत्रुका मित्र होता है;
तथापि प्रयन्नसे वह शत्रुका शत्रु भी हो सकता है।
इसलिये नाना प्रकारके उपायोंद्वारा अपने पार्िग्राहको
शान्त रखे--उसे अपने वशमें किये रहे। प्राचीन
नीतिज्ञ पुरुष मित्रके द्वारा शत्रुको नष्ट करा डालनेकी
प्रशंसा करते हैं। सामन्त (सीमा-निवासी) होनेके
कारण मित्र भी आगे चलकर शत्रु हो जाता है;
अतः विजय चाहनेवाले राजाको उचित है कि
यदि अपनेमें शक्ति हो तो स्वयं ही शत्रुका विनाश
करे; (पित्रकी सहायता न ले) क्योकि मित्रका
प्रताप बढ़ जानेपर उससे भी भय प्राप्त होता है
और प्रतापहीन शत्रुसे भी भय नहीं होता । विजिगीषु
राजाको धर्मविजयी होना चाहिये तथा वह लोगोंको
इस प्रकार अपने वशमें करे, जिससे किसोको
उद्वे न हो और सबका उसपर विश्वास बना
रहे ॥ २१--२६॥
इस शकार आदि आग्नेय महापुराणे 'याज्ञायण्डलचित्ता आदिका कथन” नामक
दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ २३३ ॥
१.
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