वायुबीज (यं)-के द्वारा उसके शरीरका शोषण
करे। इसके बाद अग्निबीज (रं)-के चिन्तनसे
अग्नि प्रकट करके यह भावना करे कि *ब्रह्माण्ड'
संज्ञक सारी सृष्टि दग्ध होकर भस्मकी पर्वताकार
राशिके समान स्थित है । तत्पश्चात् भावनाद्रारा ही
जलबीज (वं)-के चिन्तनसे अपार जलराशि
प्रकट करके उस भस्मराशिको बहा दे और
संसार अब वाणीमात्रमें ही शेष रह गया है--ऐसा
स्मरण करे। तदनन्तर वहाँ (लं) बीजस्वरूपा
भगवान्की पार्थिवी शक्तिका न्यास करे। फिर
ध्यानद्वारा देखे कि समस्त तन्मात्राओंसि आवृत
शुभ पार्थिव - तत्त्व विराजमान है । उससे एक अण्ड
प्रकट हुआ है, जो उसीके आधारपर स्थित है और
वही उसका उपादान भी है। उस अण्डके भीतर
प्रणवस्वरूपा मूर्तिका चिन्तन करे ॥ ४३--४७॥
तदनन्तर अपने आत्मामें स्थित पूर्वसंस्कृत
लिङ्गशरीरका उस पुरुषमें संक्रमण करावे, अर्थात्
यह भावना करे कि वह पुरुष लिङ्गशरीरसे युक्त
है। उसके उस शरीरे सभी इन्द्रियोंके आकार
पृथक्-पृथक् अभिव्यक्त हैं तथा वह पुरुष क्रमशः
बढ़ता और पुष्ट होता जा रहा है। फिर ध्यानमें
देखे कि वह अण्ड एक वर्षतक बढ़कर और पुष्ट
होकर फूट गया है। उसके दो टुकड़े हो गये हैं।
उसमें ऊपरवाला टुकड़ा झुलोक है और नीचेवाला
भूलोक। इन दोनोंके बीचमें प्रजापति पुरुषका
प्रादुर्भाव हुआ है। इस प्रकार वहाँ उत्पन्न हुए
प्रजापतिका ध्यान करके पुनः प्रणवसे उन
शिशुरूप प्रजापतिका प्रोक्षण करे। फिर यथास्थान
पूर्वोक्त न्यास करके उनके शरीरको मन्त्रमय बना
दे। उनके ऊपर विष्णुहस्त रखे और उन्हें वैष्णव
माने। इस तरह एक अथवा बहूत-से लोगोंके
जन्मका ध्यानद्वारा प्रत्यक्ष करे (शिष्योकि भी
नूतन दिव्य जन्मकी भावना करे) । तदनन्तर
मूलमन्तरसे शिष्योंके दोनों हाथ पकड़कर मन्त्रोपदेष्टा
गुरु नेत्रमन्त्र ( वौषट्) -के उच्चारणपूर्वक नूतन एवं
छिद्ररहित वख्से उनके नेत्रोंको बाँध दे। फिर
देवाधिदेव भगवानकी यथोचित पूजा सम्पन्न
करके तत्त्वज्ञ आचार्य हाथमें पुष्पाञ्जलि धारण
करनेवाले उन शिष्योंकों अपने पास पूर्वाभिमुख
वैटावे ॥ ४८--५३॥
इस प्रकार गुरुद्वारा दिव्य नूतन जन्म पाकर वे
शिष्य भी श्रीहरिको पुष्पाञ्जलि अर्पित करके पुष्य
आदि उपचारोंसे उनका पूजन करं । तदनन्तर पुनः
वासुदेवकी अर्चना करके वे गुरुके चरणोंका
पूजन करें। दक्षिणारूपमें उन्हें अपना सर्वस्व
अथवा आधी सम्पत्ति समर्पित कर दें। इसके बाद
गुरु शिष्योंको आवश्यक शिक्षा दें और वे
(शिष्य) नाम-मन्त्रोंद्वारा श्रीहरिका पूजन करें।
फिर मण्डलमें विराजमान शङ्ख, चक्र, गदा धारण
करनेवाले भगवान् विष्वक्सेनका यजन करें, जो
द्वारपालके रूपमें अपनी तर्जनी अङ्गुलिसे लोगोंको
तर्जना देते हुए अनुचित क्रियासे रोक रहे है ।
इसके बाद श्रीहरिकी प्रतिमाका विसर्जन करे।
भगवान् विष्णुका सारा निर्माल्य विष्वक्सेनको
अर्पित कर दे।
तदनन्तर प्रणीताके जलसे अपना और
अग्निकुण्डका अभिषेक करके वहाँके अग्निदेवको
अपने आत्मामें लीन कर ले। इसके पश्चात्
विष्वक्सेनका विसर्जन करें। ऐसा करनेसे भोगकी
इच्छा रखनेवाला साधक सम्पूर्ण मनोवाज्छित वस्तुको
पा लेता है और मुमुक्षु पुरुष श्रीहरिमें विलीन
होता--सायुज्य मोक्ष प्राप्त करता है॥ ५४--५८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कुण्डनिर्माण और अलि- स्थापनसम्बन्धी कार्य आदिका कणति "
विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २४॥
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