कफ प्रत्ककफ कफ कफ ऊ ऊ ऊ ऋऊ क जज ऋ अ कक ज कऊ ऊ कक फ क क छ क कक कक कक कफ छ छ छ कक कक क कक ज़छ बक् कक छक छ कक कक छत छ कक कक छ छ छ छ छ रू छ कक
सेवन करना चाहिये। त्रिवर्ग ' एक महान् वृक्षके
समान है। “धर्म! उसकी जड़, “अर्थ” उसकी
शाखाएँ और “काम' उसका फल है। मूलसहित
उस वृक्षक रक्षा करनेसे हो राजा फलका भागी
हो सकता है। राम! स्त्रियाँ कामके अधीन होती
हैं, उन्हींके लिये रत्रोंका संग्रह होता है। विषयसुखकी
इच्छा रखनेवाले राजाको स्त्रियोंका सेवन करना
चाहिये, परंतु अधिक मात्रामें नहीं। आहार, मैथुन
और निद्रा-इनका अधिक सेवन निषिद्ध है;
क्योंकि इनसे रोग उत्पन्न होता है। उन्हीं स्तिर्योका
सेवन करे अथवा पलंगपर बैठावे, जो अपनेमें
अनुराग रखनेवाली हों। परंतु जिस स्त्रीका
आचरण दुष्ट हो, जो अपने स्वामीकी चर्चा भी
पसंद नहीं करती, बल्कि उनके शत्रुओंसे एकता
स्थापित करती है, उदण्डतापूर्वक गर्व धारण किये
रहती है, चुम्बन करनेपर अपना मुँह पोंछती या
धोती है, स्वामीकी दी हुई वस्तुका अधिक आदर
नहीं करती, पतिके पहले सोती है, पहले सोकर
भी उनके जागनेके बाद ही जागती है, जो स्पर्श
करनेपर अपने शरीरको कैंपाने लगती है, एक-
एक अङ्गपर अवरोध उपस्थित करती है, उनके
प्रिय वचनको भी बहुत कम सुनती है और सदा
उनसे पराङ्मुख रहती है, सामने जाकर कोई वस्तु
दी जाय, तो उसपर दृष्टि नहीं डालती, अपने
जघन (कटिके अग्रभाग)-को अत्यन्त छिपाने--
पतिके स्पर्शसे बचानेकी चेष्टा करती है, स्वामीको
देखते ही जिसका मुँह उतर जाता है, जो उनके
मिरत्रोसे भी विमुख रहती है, वे जिन-जिन
स्त्रियोंके प्रति अनुराग रखते हैं, उन सबकी
ओरसे जो मध्यस्थ (न अनुरक्त न विरक्त)
दिखायी देती है तथा जो भृङ्गारका समय
उपस्थित जानकर भी श्रृज्ञार-धारण नहीं करती,
वह स्त्री "विरक्त" है। उसका परित्याग करके
अनुरागिषी स्त्रीका सेवन करना चाहिये। अनुरागवती
स्त्री स्वामीको देखते ही प्रसन्नतासे खिल उठती
है, दूसरी ओर मुख किये होनेपर भी कनखियोंसे
उनकी ओर देखा करती है, स्वामीको निहारते
देख अपनी चञ्चल दृष्टि अन्यत्र हटा ले जातौ है,
परंतु पूरी तरह हटा नहीं पाती तथा भृगुनन्दन!
अपने गुप्त अज्ञोंकों भी वह कभी-कभी व्यक्त
कर देती है और शरीरका जो अंश सुन्दर नहीं
है, उसे प्रयत्नपूर्वंक छिपाया करती है, स्वामीके
देखते-देखते छोटे बच्चेका आलिड्रन और चुम्बन
करने लगती है, बातचीतमें भाग लेती और सत्य
बोलती है, स्वामीका स्पर्श पाकर जिसके अगिं
रोमाञ्च और स्वेद प्रकट हो जाते हैं, जो उनसे
अत्यन्त सुलभ वस्तु ही माँगती है और स्वामीसे
थोड़ा पाकर भी अधिक प्रसन्नता प्रकट करती है,
उनका नाम लेते ही आनन्दविभोर हो जाती तथा
विशेष आदर करती है, स्वामीके पास अपनी
अँगुलियोंके चिह्से युक्त फल भेजा करती है तथा
स्वामीकी भेजी हुई कोई वस्तु पाकर उसे
आदरपूर्वक छातीसे लगा लेती है, अपने
आलिंगनोंद्वारा मानो स्वामीके शरीरपर अमृतका
लेप कर देती है, स्वामीके सो जानेपर सोती और
पहले ही जग जाती है तथा स्वामीके ऊरुओंका
स्पर्श करके उन्हें सोतेसे जगाती है॥ १- १७ ३ ॥
राम! दहीकी मलाईके साथ थोड़ा-सा कपित्थ
(कैथ)-का चूर्ण मिला देनेसे जो घी तैयार होता
है, उसकी गन्ध उत्तम होती है। घी, दूध आदिके
साथ जौ, गेहूँ आदिके आटेका मेल होनेसे उत्तम
खाद्य-पदार्थ तैयार होता है। अब भिन्न-भिन्न
द्रव्योंमें गन््ध छोड़नेका प्रकार दिखलाया जाता है।
शौच, आचमन, विरेचन, भावना, पाक, बोधन,
धूपन और वासन--ये आठ प्रकारके कर्म बतलाये
गये हैं। कपित्य, बिल्व, जामुन, आम और
करवीरके पल्लबोंसे जलकों शुद्ध करके उसके
द्वारा जो किसी दरव्यको धोकर या अभिषिक्त
करके पवित्र किया जाता है, वह उस द्रव्यका
"शौचन' (शोधन अथवा पवित्रीकरण) कहलाता