रक्षा करनेका काम सौंपा गया हो, उनसे चुराया
हुआ धन राजा वसूल करे। जो मनुष्य चोरी न
होनेपर भी अपने धनको चुराया हुआ बताता हो,
बह दण्डनीय है; उसे राज्यसे बाहर निकाल देना
चाहिये। यदि घरका धन घरबालोंने ही चुराया हो
तो राजा अपने पाससे उसको न दे। अपने
राज्यके भीतर जितनी दूकानें हों, उनसे उनकी
आयका बीसवाँ हिस्सा राजाको टैक्सके रूपमें
लेना चाहिये। परदेशसे माल मँगानेमें जो खर्च
और नुकसान बैठता हो, उसका ब्यौरा बतानेवाला
बीजक देखकर तथा मालपर दिये जानेवाले
टैक्सका विचार करके प्रत्येक व्यापारीपर कर
लगाना चाहिये, जिससे उसको लाभ होता रहे -
बह घाटेमें न पड़े। आयका बीसवाँ भाग ही
राजाको लेना चाहिये। यदि कोई राजकर्मचारी
इससे अधिक वसुल करता हो तो उसे दण्ड देना
उचित है। स्त्रियों और साधु-संन्यासियोंसे नावकी
उतराई (सेवा) नहीं लेनी चाहिये। यदि मल्लाहोंकी
गलतीसे नावपर कोई चीज नुकसान हो जाय तो
वह मल्लाहोंसे ही दिलानी चाहिये। राजा शूकधान्यका'
छठा भाग और शिम्बिधान्यका' आठवाँ भाग
करके रूपे ग्रहण करे। इसी प्रकार जंगली
फल-मृल आदिरमेसे देश-कालके अनुरूप उचित
कर लेना चाहिये । पशुओंका पाँचवाँ और सुवर्णका
छटा भाग राजाके लिये ग्राह्य है । गन्ध, ओषधि
रस, फूल, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, बाँस,
वेणु, चर्म, बाँसको चीरकर बनाये हुए टोकरे
तथा पत्थरके बर्तनोंपर और मधु, मांस एवं घीपर
भी आमदनीका छठा भाग ही कर लेना डचित
है॥ २०--२९॥
ब्राह्मणोंसे कोई प्रिय वस्तु अथवा कर नहीं
लेना चाहिये। जिस राजाके राज्यमें श्रोत्रिय
ब्राह्मण भूखसे कष्ट पाता है, उसका राज्य बीमारी,
अकाल और लुरेरोंसे पीड़ित होता रहता है।
अत: ब्राह्मणकी विद्या और आचरणको जानकर
उसके लिये अनुकूल जीविकाका प्रबन्ध करे तथा
जैसे पिता अपने औरस पुत्रका पालन करता है,
उसी प्रकार राजा विद्वान् ओर सदाचारी ब्राह्मणकी
सर्वथा रक्षा करें। जो राजासे सुरक्षित होकर
प्रतिदिन धर्मका अनुष्ठान करता है, उस ब्राह्मणके
धर्मसे राजाकी आयु बढ़ती है तथा उसके राष्ट्र
एवं खजानेकी भी उन्नति होती है। शिल्पकारोंको
चाहिये कि महीनेमें एक दिन बिना पारिश्रमिक
लिये केवल भोजन स्वीकार करके राजाका काम
करें। इसी प्रकार दूसरे लोगोंको भी, जो राज्यमें
रहकर अपने शरीरके परिश्रमसे जीबिका चलाते
हैं, महीनेमें एक दिन राजाका काम करना
चाहिये॥ ३० --३४॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'राजधर्मका कथन” तामक
दो सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ# २२३४
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दो सौ चौबीसवाँ अध्याय
अन्तःपुरके सम्बन्धमें राजाके कर्तव्य; स्त्रीकी विरक्ति ओर अनुरक्तिकी परीक्षा
तथा सुगन्धित पदा्थेकि सेवनका प्रकार
पुष्कर कहते हैं-- अब मैं अन्तःपुरके विषयमे | पुरुषार्थं ' त्रिवर्ग ' कहलाते है । इनकी एक-दूसरेके
विचार करूँगा। धर्म, अर्थ और काम--ये तीन | द्वारा रक्षा करते हुए स्त्रीसहित राजाओंकों इनका
१, 'शुकधात्य' वह अन्न है, जिसके दाने बालों या सीकोंसे लगते हैं -जैसे गेहूँ, जौँ आदि।
२. कह अस्र, जिसके पौधेमें फली ( छौमौ ) लगती हो - जैसे चना, मटर आदि।