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द
बराबर हो । उसके दण्डका मूलभाग चतुरस हो । | अनुसार विचित्र शोभासे
उसका माप सात या पाँच अङ्गुलका बताया गया | सुक्के अतिरिक्त एक सुवा भी आवश्यक है,
है । उस चतुरस्रके तिहाई भागको खुदवाकर गर्त | जिसकी लंबाई दण्डसहित एक हाथकी हो । उसके
बनावे। उसके मध्यभागमे उत्तम शोभायमान वृत्त
हौ । उक्त गर्तको नीचेसे ऊपरतक तथा अगल-
बगलमे बराबर खुदावे । बाहरका अर्धभाग छीलकर
साफ करा दे (उसपर रंदा करा दै) । चारों ओर
चौथाई अङ्गुल, जो शेषके आधेका आधा भाग है,
भीतरसे भी छीलकर साफ (चिकना) करा दे।
शेषार्धभागद्वारा उक्त खातकी सुन्दर मेखला बनवावे।
मेखलाके भीतरी भागे उस खातका कण्ठ तैयार
करावे, जिसका साग विस्तार मेखलाकी तीन
चौथाईके बराबर हो। कण्ठकी चौड़ाई एक या
डेढ़ अङ्गुलके मापकी हो । उक्त सुक्के अग्रभागमें
उसका मुख रहे, जिसका विस्तार चार या पाँच
हो ॥ १०--१४॥
मुखका मध्य भाग तीन या दो अङ्गुलका हो।
उसे सुन्दर एवं शोभायमान बनाया जाव । उसकी
लंबाई भी चौड़ाईके ही बराबर हो । उस मुखका
मध्य भाग नीचा ओर परम सुन्दर होना चाहिये।
सुक्के कण्ठदेशे एक ऐसा छेद रहै, जिसमें
कनिष्ठिका अङ्गुलि प्रविष्ट हो जाय । कुण्ड (अर्थात्
डंडेको गोल बनाया जाय। उस गोल डंडेकी
मोटाई दो अङ्गुलकी हो । उसे खूब सुन्दर बनाना
चाहिये । सुवाका मुख-भाग कैसा हो? यह
बताया जाता है। थोड़ी-सी कीचड़में गाय अथवा
बछड़ेका पैर पड्नेपर जैसा पदचिह उभर आता
है, ठीक वैसा ही सुवाका मुख बनाया जाय,
अर्थात् उस मुखका मध्य भाग दो भागोंमें विभक्त
रहे। उपर्युक्त अग्निकुण्डको गोबरसे लीपकर
उसके भीतरकी भूमिपर बीचमें एक अङ्गुल मोटी
एक रेखा खींचे, जो दक्षिणसे उत्तरकौ ओर गयी
हो। उस रेखाको 'वज़' की संज्ञा दी गयी है । उस
प्रथम उत्तराग्र रेखापर उसके दक्षिण और उत्तर
पारमे दो पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे। इन दोनों रेखाओंके
बीचमें पुनः तीन पूर्वाग्र रेखाएं खींचे । इनमें पहली
रेखा दक्षिण भागमें हो और शेष दो क्रमशः
उसके उत्तरोत्तर भागमें खींची जायं । मन्त्रज्ञ पुरुष
इस प्रकार उल्लेखन (रेखाकरण) करके उस भूमिका
अभ्युक्षण (सेचन) करें। फिर प्रणवके उच्चारणपूर्वक
भावनाद्रारा एक विष्टर (आसन)-की कल्पना
सुकृके मुख )-का शेष भाग अपनी रुचिके | करके उसके ऊपर वैष्णवी शक्तिका आवाहन एवं
अज़ुलपर चिह्न लगा दे। फिर सूतको दोनों कीलॉमें याध दे । फिर उस सूतके चतुर्थांश चिह्को कोणकी दिलाकौ ओर खचकर कोणका
निश्चय करे । इससे चागो कोण शुद्ध होते हैं। इस प्रकार समान चतुरख क्षेत्र शुद्ध होता है। क्षेत्रशुद्धिक अनन्तर कुण्डका खनन करे ।
चतुर्भुज कषेत्रम भुज और कोटिके अङ्के गुणा करनेपर जो गुणनफल आता है, कहो क्षेत्रफल होता है। इस प्रकार २४ अङ्गुलके कषेमे
२४ अङ्गुल भुज और २४ अन्रुल कोटि परस्पर गुणित हों तो ५७६ अङ्गुल क्षेत्रफल होगा ।
चतुरस क्षेत्रकों चौबीस भागि विभक्त करे । फिर उसमेंसे तेरह भागको ख्यासार्ध माने और उतने हौ विस्तारके परकालसे क्षेत्रके
मध्यभागले आएम्भ करके मण्डलाकार रेखा खौंचनेपर उत्तम युत्त कुण्ड बन जायगा।
चतुरस क्षेत्रके शर्तांश और पश्चमांशकों जोड़कर उतना अंश क्षेत्रमानमेंसे घटा दे। फिर जो क्षेत्रमान शेष रह जाय, उतने हौ
विस्तारका परकाल लेकर क्षेत्रके मध्यभागमें लगा दे और अर्धयृत्ताकार रेखा खोंचे। फिर अर्धचन्द्रके एक अग्रभागसे दूसरे अर्धभागतक
पड़ी रेखा खोँचे। इससे अर्धचन्द्रकुण्ड समीचौन होगा। डदाहरणार्थ--२४ अङ्गुलके क्षेत्रका पक्षमांश ४ अङ्गुल, ६ यवा, ३ यूका,
१ लिखा (या लिक्षा) ओर ५ बालाग्र होगा । उस क्षेत्रका शतांश ० अङ्गुल, ० यचा, ३ यूका, ० लिक्षा और ४ बालाग्र होगा । इन दोनोंका
योग ४ अङ्गुल ६ यव, ६ यूका, २ लिक्षा और १ बालाग्र होगा। यह मान् २४ अङ्गुले घटा दिया जाय तो शेष रहेगा १९ है: १ चवा,
१ यूका, ५ लिक्षा ओर ७ बालाग्र। इतने विस्तारके परकालसे अर्धचन्द्र न्ना चाहिये। अग्निपुराणे इन कुष्डोकि विधि
अत्यन्त संक्षेपसे लिखी गयी है; अतः अन्य ग्रन्थोंका मत भी यहाँ दे दिया गया है।