तीसरे भागमें कूर्म ओर कमलका निर्माण करना
चाहिये॥ १-३ २ ॥
एक हजार पल सुवर्णसे मूल, दण्ड, पत्ते,
फल, पुष्प और पाँच स्कन्धोंसे युक्त कल्पवृक्षकी
कल्पना करे। विद्वान् ब्राह्मण यजमानके द्वारा
संकल्प करके पाँच ब्राह्मणोंको इसका दान
'करावे। इसका दान करनेवाला ब्रह्मलोके पितृगणोंके
साथ चिरकालतक आनन्दका उपभोग करता है।
पाँच सौ पल सुवर्णसे कामधेनुका निर्माण कराके
विष्णुके सम्मुख दान करे । ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव
आदि समस्त देवता गौमें प्रतिष्ठित हैं। धेनुदान
करनेसे अपने-आप समस्त दान हो जाते हैं। यह
सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंको सिद्ध करनेवाला एवं
ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला है। श्रीविष्णुके
सम्मुख कपिला गौका दान करनेवाला अपने
सम्पूर्णं कुलका उद्धार कर देता है। कन्याको
अलंकृत करके दान करनेसे अश्वमेध -यक्ञके
फलको प्राप्ति होती है। जिसमें सभी प्रकारके
सस्य (अनाजोंके पौधे) उपज सकें, ऐसी भूमिका
दान देकर मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
ग्राम, नगर अथवा खेटक (छोटे गाँव)-का दान
देनेवाला सुखी होता है। कार्तिककी पूर्णिमा
आदियें वृषोत्सर्ग करनेवाला अपने कुलका उद्धार
कर देता है॥ ४-१० ॥
इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें 'प्रथ्वीदानका वर्णन” नायक
दो सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २१३॥
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दो सौ चौदहवाँ अध्याय
नाड़ीचक्रका वर्णन
अग्निदेव कहते हैँ-- वसिष्ठ! अब मैं
नाडीचक्रके विषये कहता हूँ, जिसके जाननेसे
श्रीहरिका ज्ञान हो जाता है। नाभिके अधोभागे
कन्द (मूलाधार) है, उससे अड्कुरोंकी भाँति
नाडियाँ निकली हुईं हैं। नाभिके मध्यमें बहत्तर
हजार नाडियाँ स्थित हैं। इन नाड़ियोंने शरीरको
ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब ओरसे व्याप्त कर
रखा है और ये चक्राकार होकर स्थित हैं। इनमें
प्रधान दस नाड़ियाँ हैं--इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्णा
गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पृथा, यशा, अलम्बुषा, कुहू
और दसवीं शब्विनी। ये दस प्रार्णोका वहन
करनेवाली प्रमुख नाड़ियाँ बतलायी गयीं। प्राण
अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर,
देवदत्त और धनंजय--ये दस "प्राणवायु" हैं।
इनमें प्रथम वायु प्राण दसोंका स्वामी है। यह
प्राण-रिक्तताकी पूर्ति प्रति प्राणोंको प्राणयन
(प्रेरण) करता है और सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयदेशमें
स्थित रहकर अपान-वायुद्रारा मल-मृत्रादिके त्यागसे
होनेवाली रिक्तताको नित्य पूर्ण करता है। जीवमें
अश्रित यह प्राण श्रासोच्छास ओर कास आदिद्वारा
प्रयाण (गमनागमन) करता है, इसलिये इसे
"प्राण" कहा गया है। अपानवायु मनुष्योकि आहारको
नीचेकौ ओर ले जाता है और मूत्र एवं शुक्र
आदिका भी नीचेकी ओर वहन करता है, इस
अपानयनके कारण इसे "अपान ' कहा जाता है।
समानवायु मनुष्योके खाये-पीये ओर सधे हुए
पदार्थोको एवं रक्त, पित्त, कफ तथा वातको सारे
अङ्गे समानभावसे ले जाता है, इस कारण उसे
"समान कहा गया है । उदान नामक वायु मुख
और अधरोंको स्पन्दिति करता है, नेतन्नोंकी
अरुणिमाको बढ़ाता है और मर्मस्थानोंकों उद्विग्न
करता है, इसीलिये उसका नाम “उदान' है।