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बारह पर्वतोंसे युक्त मेरुका हाथियोंद्वारा निर्माण | इसके साथ अन्य बारह पर्वत एक-एक खारी

करके तीन पुरुषोंसहित उस “हस्तिमेरु'का दान | धान्यके बनाने चाहिये। उन सबके तीन-तीन

करे। बह दान देकर मनुष्य अक्षय फलका भागी

होता है॥ २४६॥

पंद्रह अश्वोंका ' अश्वमेरु' होता है। इसके साथ

बारह पर्वतोंके स्थान बारह घोड़े होने चाहिये।

श्रीविष्णु आदि देवताओंके पूजनपूर्वक अश्वमेरुका

दान करनेवाला इस जन्‍्ममें विविध भोगोंका

उपभोग करके दूसरे जन्मे राजा होता है।

“गोमेरु/का भी अश्वमेरुकी संख्याके परिमाण एवं

विधिसे दान करना चाहिये। एक भार रेशमी

बस्त्रोंका “वस्त्रमेर' होता है। उसे मध्यमें रखकर

अन्य बारह पर्वतोके स्थानपर बारह वस्त्र रखे।

इसका दान करके मनुष्य अक्षय फलकी प्राप्ति

करता है। पाँच हजार पल घृतका 'आज्य-पर्वत'

माना गया है। इसका सहवर्ती प्रत्येक पर्वत पाँच

सौ पल घृतका होना चाहिये। इस आज्य-पर्वतपर

श्रीहरिका यजन करे। फिर श्रीविष्णुके सम्मुख

इसे ब्राह्मणको दानकर मनुष्य इस लोकमें

सर्वस्व पाकर श्रीहरिके परमधामको प्राप्त होता

है। उसी प्रकार 'खण्ड (खाँड) मेरु'का निर्माण

एवं दान करके मनुष्य पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति कर

लेता है॥ २५--२९॥

स्वर्णमय शिखर होने चाहिये। सबपर ब्रह्मा,

विष्णु और महेश--तीनोंका पूजन करना चाहिये।

श्रीविष्णुका विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये।

इससे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है ॥ ३० ‡॥

इसी प्रमाणके अनुसार 'तिलमेरु'का निर्माण

करके दशांशके प्रमाणसे अन्य पर्वतोंका निर्माण

करे। उसके एवं अन्य पर्वतोंके भी पूर्वोक्त

प्रकारसे शिखर बनाने चाहिये। इस तिलमेरुका

दान करके मनुष्य बन्धु-बान्धवोंके साथ

विष्णुलोकको प्राप्त होता है ॥ ३१-३२॥

(तिलमेरुका दान करते समय निम्नलिखित

मन्त्रको पढ़े--) ““ विष्णुस्वरूप तिलमेरुको नमस्कार

है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश जिसके शिखर हैं, जो

पृथ्वीकी नाभिपर स्थित है, जो सहवर्ती बारहों

पर्वतोंका प्रभु. समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला,

शान्तिमय, विष्णुभक्त है, उस तिलमेरुको नमस्कार

है। वह मेरी सर्वथा रक्षा करे। मैं निष्पाप होकर

पितरोंके साथ श्रीविष्णुकों प्रास होता हूँ। "ॐ

नपः' तुम विष्णुस्वरूप हो, विष्णुके सम्मुख मैं

विष्णुस्वरूप दाता विष्णुस्वरूप ब्राह्मणका भक्तिपूर्वक

भोग एवं मोक्षकी प्राप्तिके हेतु तुम्हारा दान करता

पाँच खारी धान्यका “धान्यमेरु/ होता है । | हूँ" ' ॥ ३३--३५॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणे “मेरुदातक्ा वर्णन” नामक

दो खौ बारहवाँ अध्याय पृ हआ॥२१२॥

व कया

दो सौ तेरहवां अध्याय

पृथ्वीदान तथा गोदानकी महिमा

अग्निदेव कहते है- वसिष्ठ ! अब मैं | भार सुवर्णसे रचना करे। उसके आधेमें

“पृथ्वीदान 'के विषयमें कहता हँ । ' पृथ्वी" तीन | कूर्म एवं कमल बनवाये। यह “उत्तम पृथ्वी”

प्रकारक मानी गयी है। सौ करोड़ योजन | बतलायी गवी है। इसके आधे “मध्यम पृथ्वी"

विस्तारवाली सप्तद्वीपवती समुद्रौ सहित जम्बूद्दीपपर्यन्त | मानौ जाती है । इसके तीसरे भागमें निर्मित पृथ्वी

पृथ्वी उत्तम मानी गयी है । उत्तम पृथ्वीकौ पाँच | कनिष्ठ” मानी गयी है। इसके साथ पृथ्वीके

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