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कहनेपर देवता दैत्योकि साथ संधि करके क्षीरसमुद्रपर | करके अमृत पीने लगा। तब सूर्य और चन्द्रमाने

आये। फिर तो उन्होंने एक साथ मिलकर

समुद्र-मन्थन आरम्भ किया। जिस ओर वासुकि

नागकी पूँछ थी, उसी ओर देवता खड़े थे। दानव

वासुकिं नागके निः धाससे क्षीण हो रहे थे और

देवताओंको भगवान्‌ अपनी कृपादृष्टिसे परिपुष्ट

कर रहे थे। समुद्र-मन्थन आरम्भ होनेपर कोई

आधार न मिलनेसे मन्दराचल पर्वत समुद्रे डूब

गया ॥ १--७॥

तब भगवान्‌ विष्णुने कुर्म (कछुए- )-का रूप

धारण करके मन्दराचलको अपनी पीठपर रख

लिया। फिर जब समुद्र मथा जाने लगा, तो उसके

भीतरसे हलाहल विष प्रकट हुआ। उसे भगवान्‌

शंकरने अपने कण्ठमें धारण कर लिया। इससे

कण्ठ काला दाग पड़ जानेके कारण वे ' नीलकण्ठ '

नामसे प्रसिद्ध हुए । तत्पश्चात्‌ समुद्रसे वारुणीदेवी,

पारिजात वृक्ष, कौस्तुभमणि, गौएँ तथा दिव्य

अप्सराएँ प्रकट हुई । फिर लक्ष्मीदेवीका प्रादुर्भाव

हुआ। वे भगवान्‌ विष्णुको प्राप्त हई । सम्पूर्ण

देवताओंने उनका दर्शन और स्तवन किया। इससे

वे लक्ष्मीवान्‌ हो गये। तदनन्तर भगवान्‌ विष्णुके

अंशभूत धन्वन्तरि, जो आयुर्वेदके प्रवर्तक हैं,

हाथमे अमृतसे भरा हुआ कलश लिये प्रकट हुए।

दैत्योनि उनके हाथसे अमृत छीन लिया ओर

उसर्मेसे आधा देवताओंको देकर वे सब

चलते बने। उनमें जम्भ आदि दैत्य प्रधान थे।

उन्हें जाते देख भगवान्‌ विष्णुने स्त्रीका रूप धारण

किया। उस रूपवती स्त्ीको देखकर दैत्य मोहित

हो गये और बोले-' सुमुखि! तुम हमारी भाया

हो जाओ और यह अमृत लेकर हमें पिलाओ ।'

“बहुत अच्छा' कहकर भगवान्‌ने उनके हाथसे

अमृत ले लिया और उसे देवताओंको पिला

दिया। उस समय राहु चन्द्रमाका रूप धारण

उसके कपट -वेषको प्रकट कर दिया ॥ ८--१४॥

यह देख भगवान्‌ श्रीहरिने चक्रसे उसका

मस्तक काट डाला। उसका सिर अलग हो गया

और भुजाओंसहित धड़ अलग रह गया। फिर

भगवान्‌को दया आयी और उन्होने राहुको अमर

बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहुने भगवान्‌ श्रीहरिसे

कहा -“इन सूर्य और चन्द्रमाको मेरे द्वारा अनेकों

बार ग्रहण लगेगा। उस समय संसारके लोग जो

कुछ दान करें, वह सब अक्षय हो।* भगवान्‌

विष्णुने 'तथास्तु'” कहकर सम्पूर्ण देवताओंके साथ

राहुकी बातका अनुमोदन किया। इसके बाद

भगवान्‌ने स्त्रीरूप त्याग दिया; किंतु महादेवजीको

भगवानूके उस रूपका पुनर्दर्शन करनेकी इच्छ

हुई । अतः उन्होंने अनुरोध किया--' भगवन्‌!

आप अपने स्त्रीरूपका मुझे दर्शन करावें ।'

महादेवजीकी प्रार्थनासे भगवान्‌ श्रीहरिने उन्हें

अपने स्तरीरूपका दर्शन कराया। वे भगवान्‌की

मायासे ऐसे मोहित हो गये कि पार्वतीजीको

त्यागकर उस स्त्रीके पीछे लग गये। उन्होंने नग्न

और उन्मत्त होकर मोहिनीके केश पकड़ लिये।

मोहिनी अपने केशोंकों छुड़ाकर वहसे चल दी।

उसे जाती देख महादेवजी भी उसके पीछे-पीछे

दौड़ने लगे। उस समय पृथ्वीपर जहाँ-जहाँ

भगवान्‌ शंकरका वीर्य गिर, वहाँ-वहाँ शिवलिज्ञोंका

क्षेत्र एवं सुवर्णकी खानें हो गयीं। तत्पश्चात्‌ यह

माया है'--ऐसा जानकर भगवान्‌ शंकर अपने

स्वरूपमें स्थित हुए। तब भगवान्‌ श्रीहरिने प्रकट

होकर शिवजीसे कहा-- रुदर ! तुमने मेरी मायाको

जीत लिया। पृथ्वीपर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई

ऐसा पुरुष नहीं है, जो मेरी इस मायाको जीत

सके।* भगवानूके प्रयत्नसे दैत्योंको अमृत नहीं

मिलने पाया; अतः देवताओंनि उन्हें युद्धमें मार

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