दो सौ दसवाँ अध्याय
सोलह महादानोंके नाम; दस मेरुदान, दस धेनुदान और
विविध गोदानोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! अब मैं सभी
प्रकारके दानोंका वर्णन करता हूँ। सोलह महादान
होते हैं। सर्वप्रथम तुलापुरुषदान, फिर हिरण्यगर्भदान,
ब्रह्माण्डदान, कल्पवृक्षदान, पाँचवाँ सहस्र गोदान,
स्वर्णमयी कामधेनुका दान, सातवाँ स्वर्णनिर्भित
अश्वका दान, स्वर्णमय अश्चयुक्त रथका दान,
स्वर्णरचित हस्तिरथका दान, पाँच हलोंका दान,
भूमिदान, विश्वचक्रदान, कल्पलतादान, उत्तम सप्त-
समुद्रदान, रत्नधेनुदान ओर जलपूर्णं कुम्भदान। ये
दान शुभ दिने मण्डलाकार मण्डपमें देवताओंका
पूजन करके ब्राह्मणको देने चाहिये । मेरुदान भी
पुण्यप्रद दै । ' मेरु" दस माने गये हैं, उन्हें सुनो--
धान्यमेरु एक हजार द्रोण धान्यका उत्तम माना
गया है, पाँच सौ द्रोणका मध्यम और
ढाई सौ द्रोणका अधम माना गया है । लवणाचल
सोलह द्रोणका बनाना चाहिये, वही उत्तम माना
गया है। गुड़-पर्वत दस भारका उत्तम माना गया
है, पाँच भारका मध्यम और ढाई भारका निकृष्ट
कहा जाता है । स्वर्णमेरु सहस्र पलका उत्तम, पाँच
सौ पलका मध्यम और ढाई सौ पलका निकृष्ट
माना गया है। तिलपर्वत क्रमशः दस द्रोणका
उत्तम, पाँच द्रोणका मध्यम और तीन द्रोणका
निकृष्ट कहा गया है । कार्पास (रूई) पर्वत बीस
भारका उत्तम, दस भारका मध्यम तथा पाँच
भारका निकृष्ट है । बीस घृतपूर्ण कुम्भोंका उत्तम
घृताचल होता है । रजत-पर्वत दस हजार पलका
उत्तम माना गया है। शर्कराचल आठ भारका
उत्तम, चार भारका मध्यम और दो भारका मन्द
माना गया है ॥ १-९१॥
अब मैं दस धेनुओंका वर्णन करता हूँ,
जिनका दान करके मनुष्य भोग और मोक्षको
प्राप्त कर लेता है। पहली गुड़धेनु होती है, दूसरी
घृतधेनु, तीसरी तिलधेनु, चौथी जलधेनु, पांचवीं
क्षीरधेनु, छठी मधुधेनु, सातवीं शर्कराधेनु, आठवों
दधिधेनु, नवीं रसधेनु और दसवीं गोरूपेण
कल्पित कृष्णाजिनधेनु । इनके दानकी विधि यह
बतलायी जाती दै कि तरल पदार्थ-सम्बन्धी
धेनुके प्रतिनिधिरूपसे घड़ोंमें डन पदार्थोको
भरकर कुम्भदान करने चाहिये ओर अन्य धातुओंके
रूपमे उन-उन द्रव्योकी राशिका दान करना
चाहिये ॥ १०--१२२॥
(कृष्णाजिनधेनुके दानकी विधि यह है--)
गोबरसे लिपी-पुती भूमिपर सब ओर दर्भ
बिछाकर उसके ऊपर चार हाथका कृष्णमृगचर्म
रखे। उसकी ग्रीवा पूर्वं दिशाकौ ओर होनी
चाहिये। इसी प्रकार गोवत्सके स्थानपर छोटे
आकारका कृष्णमृगचर्मं स्थापित करे । वत्ससहित
धेनुका मुख पूर्वकी ओर ओर पैर उत्तर दिशाकी
ओर समझे। चार भार गुडको गुडधेनु सदा ही
उत्तम मानी गयी है। एक भार गुड़का गोवत्स
बनावे। दो भारक गौ मध्यम होती है। उसके साथ
आधे भारका बछड़ा होना चाहिये। एक भारकी गौ
कनिष्ठ कही जाती है। इसके चतुर्थाशका वत्स
इसके साथ देना चाहिये । गुडधेनु अपने गुड्संग्रहके
अनुसार बना लेनी चाहिये ॥ १३--१६ ३ ॥
पाँच गुञ्जाका एक “माशा” होता है, सोलह
माशेका एक “ सुवर्ण' होता है, चार सुवर्णका
"पल" और सौ पलकी ' तुला" मानी गयी है।
बीस तुलाका एक “भार' होता है एवं चार
आढक (चौसठ पल)-का एक द्रोण" होता
है ॥ १७-१८॥
गुड़निर्मित धेनु और वत्सको श्वेत एवं सूक्ष्म