३९२
इस प्रकार अगस्त्यका आवाहन करे और
उन्हें गन्ध, पुष्प, फल, जल आदिसे अर्ध्यदान दे।
तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यकी ओर मुख करके
चन्दनादि उपचारोंद्वारा उनका पूजन करे। दूसरे
दिन प्रातःकाल कलशस्थित अगस्त्यकी मूर्तिको
किसी जलाशयके समीप ले जाकर निम्नलिखित
मन््रसे उन्हें अर्घ्य समर्पित करे॥४३॥
काशपुष्यप्रतीकाश अग्निमारुतसम्भव॥
मित्रावरुणयोः पुत्र कुम्भयोने नमोऽस्तु ते)
आतापिभ॑क्षितो येन वातापिश्च महासुरः ॥
समुद्रः शोधितो येन सोऽगस्त्यः सम्मुखोऽस्तु मे।
अगस्ति प्रार्थयिष्यामि कर्म॑णा मनसा गिरा॥
अर्चयिष्याम्यहं चैत्रं परलोकाधिकाङ्क्षया
काशपुष्पके समान उज्वल, अग्नि और वायुसे
प्रादुर्भूत, मित्रावरुणके पुत्र, कुम्भसे प्रकट होनेवाले
अगस्त्य ! आपको नमस्कार है। जिन्होंने राक्षसराज
आतापी ओर वातापीका भक्षण कर लिया था तथा
समुद्रको सुखा डाला था, वे अगस्त्य मेरे सम्मुख
प्रकट हों। मैं मन, कर्म और वचनसे अगस्त्यकी
प्रार्थना करता हूँ। मैं उत्तम लोकोंकी आकाङ्क्षासे
अगस्त्यका पूजन करता हूं ॥ ५-७ ३ ॥
चन्दन-दान-मन्त्र
द्वीपान्तरसमुत्पन्न॑ देवानां परमं प्रियम्॥
राजानं सर्ववृक्षाणां चन्दनं प्रतिगृह्मताम्।
जम्बूद्वीपके बाहर उत्पन्न, देवताओंके परमप्रिय,
समस्त वृक्षेकि राजा चन्दनकों ग्रहण कीजिये॥ ८१ ॥
पुष्पपाला-अर्पण
धर्र्थिकामपोक्षाणां भाजनी पापनाशनी॥
सौभाग्यारोग्यलक्ष्मीदा पुष्पमाला प्रगृह्मताम्।
महर्षि अगस्त्य! यह पुष्पमाला धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष--चारों पुरुषार्थोको देनेवाली एवं
पापोंका नाश करनेवाली है। सौभाग्य, आरोग्य
और लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेबाली इस पुष्पमालाको
आप ग्रहण कीजिये॥ ९; ॥
+ अग्निपुराण ]
(4.
धूपदान-मन्त्र
शूपोऽयं गृहयातां देव! भक्तिं मे इचलां कुरु ॥
ईप्सितं मे वरं देहि परमां च शुभा गतिम्।
भगवन्! अब यह धूप ग्रहण कीजिये और
आपमें मेरी भक्तिको अविचल कीजिये। मुझे इस
लोकमें मनोवाज्छित वस्तुं ओर परलोकमें शुभगति
प्रदान कीजिये ॥ १० ३ ॥
वस्त्र, धान्य, फल, सुवर्णे युक्त अर्ध्य -दान-मन््र
सुरासुरै्मुनिश्रेष् सर्वकामफलप्रद॥
वस्वत्रीहिफलैहंप्ना दत्तस्त्वध्यों हयं मया।
देवताओं तथा असुरोंसे भी समादूत मुनिश्रेष्ठ
अगस्त्य! आप सम्पूर्ण अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले
हैं। मैं आपको वस्त्र, धान्य, फल और सुवर्णसे
युक्त यह अर्घ्यप्रदान करता हूँ ॥ ११९ ‡॥
फलार्घ्यदान-मन्त्र
अगस्त्यं बोधयिष्यामि यन्मया मनसोद्धतम्।
फलैरर््यं प्रदास्यामि गृहाणार्ध्यं महामुने ॥
महामुने! मैने मन्म जो अभिलाषा कर रखी
थी, तदनुसार मैं अगस्त्यजीको जगाऊँगा। आपको
फलार्ष्य अर्पित करता हूँ, इसे ग्रहण कीजिये ॥ १२॥
( केबल द्विजोंके लिये उच्चारणीय
अर्ध्यदानका वैदिक मन्त्र )
अगस्त्य एवं खनमानो धरित्री प्रजामपत्यं बलमीहमानः।
उभौ कर्णावृषिरुग्रतेजा: पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम ॥
महर्षि अगस्त्य इस प्रकार प्रजा-संतति तथा
बल एवं पुष्टिके लिये सचेष्ट हो कुदाल या
खनित्रसे धरतीकों खोदते रहे। उन उग्रतेजस्वी
ऋषिने दोनों कर्णो (सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी शक्ति)-
का पोषण किया। देवताओंके प्रति उनकी सारी
आशी:प्रार्थना सत्य हुई॥१३॥
( तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्रसे लोपामुद्राको
अर्ध्यदान दे )
राजपुत्रि नमस्तुभ्यं मुनिपत्नि महात्रते।
अर्ध्यं गृहणीष्य देवेशि लोपामुद्रे यशस्विनि ॥