आश्विनके शुक्ल पक्षकी एकादशीको उपवास
रखकर तीस दिनोकि लिये निम्नलिखित संकल्प
करके मासोपवास-व्रत ग्रहण करे--' श्रीविष्णो !
मैं आजसे लेकर तीस दिनतक आपके
उत्थानकालपर्यन्त निराहार रहकर आपका पूजन
करेगा । सर्वव्यापी श्रीह ! आश्विन शुक्ल एकादशीसे
आपके उत्थानकाल कार्तिक शुक्ल एकादशीके
मध्यमे यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो (आपको
कृपासे) मेरा व्रत भङ्ग न हो*।' ब्रत करनेवाला
दिनमें तीन बार स्नान करके सुगन्धित द्रव्य और
पुष्पोंद्वारा प्रातः, मध्याह एवं सायंकाल श्रीविष्णुका
पूजन करे तथा विष्णु- सम्बन्धी गान, जप और
ध्यान करे। व्रती पुरुष वकवादका परित्याग करे
ओर धनकी इच्छा भी न करे। वह किसी भी
व्रतहीन मनुष्यका स्पर्शं न करे ओर शास्त्रनिषिद्ध
कर्मोमिं लगे हुए लोगोंका चालक--प्रेरक न बने।
उसे तीस दिनतक देवमन्दिरं ही निवास करना
चाहिये। व्रत करनेवाला मनुष्य कार्तिकके
शुक्लपक्षकी द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा
करके ब्राह्मणको भोजन करावे । तदनन्तर उन्हें
दक्षिणा देकर और स्वयं पारण करके ब्रतका
विसर्जन करे। इस प्रकार तेरह पूर्ण मासोपवास-
ब्रतोंका अनुष्ठान करनेवाला भोग और मोक्ष--
दोनोंको प्राप्त कर लेता है॥ ३--९॥
(उपर्युक्त विधिसे तेरह मासोपबास-ब्रतोंका
अनुष्ठान करनेके बाद त्रत करनेवाला ब्रतका
उद्यापन करें) वह वैष्णवयज्ञ करावे, अर्थात्
तेरह ब्राह्मणोंका पूजन करे। तदनन्तर उनसे आज्ञा
लेकर किसी ब्राह्मणको तेरह ऊर्ध्ववस्त्र, अधोवस्त्र,
पात्र, आसन, छत्र, पतित्री, पादुका, योगपट्ट और
यज्ञोपवीतोंका दान करे॥ १०--१२॥
तत्पश्चात् शय्यापर अपनी और श्रीविष्णुकी
स्वर्णमयी प्रतिमाका पूजन करके उसे किसी दूसरे
ब्राह्मणको दान करे एवं उस ब्राह्मणका वस्त्र
आदिसे सत्कार करे। तदनन्तर ब्रत करनेवाला
यह कटे ~ पै सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर ब्राह्मणों
और श्रीविष्णुभगवानूके कृपा-प्रसादसे विष्णुलोकको
जाऊँगा। अब मैं विष्णुस्वरूप होता हँ ।' इसके
उत्तरम ब्राह्मर्णोको कहना चाहिये -' देवात्मन्
तुम ॒विष्णुके उस रोग-शोकरहित परमपदको
जाओ-जाओ ओर वहाँ विष्णुका स्वरूप धारण
करके विमानरपे प्रकाशित होते हुए स्थित होओ।'
फिर व्रत करनेवाला द्विजोंको प्रणाम करके वह
शय्या आचार्यको दान करे। इस विधिसे त्रत
करनेवाला अपने सौ कुलोंका उद्धार करके उन्हें
विष्णुलोकं ले जाता है । जिस देशे मासोपवास-
त्रत करनेवाला रहता है, वह देश पापरहित हो
जाता है। फिर स सम्पूर्ण कुलकी तो बात ही
क्या है, जिसमें मासोपवास-व्रतका अनुष्ठान
करनेवाला उत्पन्न हुआ होता है। ब्रतयुक्त मनुष्यको
मूर्च्छित देखकर उसे घृतमिश्रित दुग्धको पान
कराये। निम्नलिखित वस्तुं व्रतको नष्ट नहीं
करती--ब्राह्मणकी अनुमतिसे ग्रहण किया हुआ
हविष्य, दुग्ध, आचार्यकी आज्ञासे ली हुई ओषधि,
जल, मूल और फल। "इस ब्रतमें भगवान्
श्रीविष्णु ही महान् ओषधिरूप है '- इसी
विश्वाससे व्रत करनेवाला इस ब्रतसे उद्धार
पाता है ॥ १३--१८॥
इस प्रकार आदि आतव महापुराणे " मासोपयास-व्रतका वर्णन” नामक
दो सौ चारवाँ अध्याय पूर हुआ॥# २०४॥
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* अच्यप्रभृत्वह॑ं विष्णौ यावदुत्त्वावक
करर्विकाचिनयोर्षिष्णो यायदुत्थानकं
केव । अर्चये त्वामनश्नन्ू हि यावत्थ्रिशद्दिनानि तुआ
तव । भिये यद्यशले5हं व्रतभङ्गो ब में भवेत्॥
(अग्नि० २०४।४-५)