नामक नरकमें कीड़ा और विष्ठाका भक्षण करता
है। पञ्चमहायज्ञ और नित्यकर्मका परित्याग करनेवाला
"कुटल ' नामक नरकमें जाकर मूत्र और रक्तका
पान करता है। अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करनेवालेको
महादुर्गनधमय नरकमें गिरकर रक्तका आहार
करना पड़ता है॥ १--१२॥
दूसरोको कष्ट देनेवाला 'तैलपाक' नामक
नरकमें तिलोकी भाँति पेरा जाता है। शरणागतका
वध करनेवालेको भी “तैलपाक 'में पकाया जाता
है। यज्ञमें कोई चीज देनेकी प्रतिज्ञा करके न
देनेवाला “निरुच्छास "मे, रस-विक्रय करनेवाला
^वज्रकटाह ' नामक नरकमें और असत्यभाषण
करनेवाला “महापात ' नामक नरके गिराया जाता
है ॥ १३-१४॥
पापपूर्ण विचार रखनेवाला * महाज्वाल मे,
अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेवाला ' क्रकच ' में,
वर्णसंकर संतान उत्पन्न करनेवाला * गुडपाके,
दूसरोंके मर्मस्थानोंमें पीड़ा पहुँचानेवाला "प्रतुद मे,
प्राणिहिंसा करनेवाला ' क्षारहद 'में, भूमिका अपहरण
करनेवाला 'श्षुरधार'में, गौ और स्वर्णकी चोरी
करनेवाला “अम्बरीषे, वृक्ष काटनेवाला
*बज़शस्त्र 'में, मधु चुरानेवाला 'परीताप 'में, दूसरोंका
ले जाया जाता है। घूस खानेवाले “दुर्धर' नामक
नरकमें और निरपराध मनुष्योंको कैद करनेवाले
“लौहमय मंजूष' नामक नरकमें यमदूतोंद्वारा ले
जाकर कैद किये जाते हैं। वेदनिन्दक मनुष्य
*अप्रतिष्ठ” नामक नरकमें गिराया जाता है। झूठी
गवाही देनेवाला “पूतिवक्त्र'में, धनका अपहरण
करनेवाला “परिलुण्ठ 'में, बालक, स्त्री ओर वृद्धकी
हत्या करनेवाला तथा ब्राह्मणको पीड़ा देनेवाला
*कराल "पे, पद्यपान करनेवाला ब्राह्मण ' विलेप 'में
और मित्रोंमें परस्पर भेदभाव करानेवाला ' महाप्रेत'
नरकको प्राप्त होता है। परायी स्त्रीका उपभोग
करनेवाले पुरुष और अनेक पुरुषोंसे सम्भोग
करनेवाली नारीको “शाल्मल नामक नरकमें
जलती हुई लौहमयी शिलाके रूपमे अपनी. दस
प्रिया अथवा प्रियका आलिङ्कन करना पड़ता
है॥ १५--२१॥
नरकोंमें चुगली करनेवालोंकी जीभ खींचकर
निकाल ली जाती है, परायी स्त्रियोंकों कुदृष्टिसे
देखनेवालोंकी आँखें फोड़ी जाती हैं, माता और
पुत्रीक साथ व्यभिचार करनेवाले धधकते हुए
अंगारॉपर फेंक दिये जाते हैं, चोरोंको छुरोंसे काटा
जाता है और मांस-भक्षण करनेवाले नरपिशाचोंको
धन अपहरण करनेवाला “कालसूत्र 'में, अधिक | उन्हींका मांस काटकर खिलाया जाता है। मासोपवास,
मांस खानेवाला 'कश्मल "मँ और पितरोंको पिण्ड | एकादशीब्रत अथवा भीष्मपञ्चकतव्रत करनेवाला
न देनेवाला “उग्रगन्ध' नामक नरकमें यमदूतोंद्वारा | मनुष्य नरकॉोंमें नहीं जाता॥ २२-२३॥
इस प्रकार आदि आग्तेय महाएुराणयें 'एक सौ त्वासौ तरकोके स्वरूपका वर्णन” नामक
दो सौ तौनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २०३॥
न]
दो सौ चारवाँ अध्याय
मासोपवास-व्रत
अग्निदेव कहते हैं-- मुनिश्रेष्ठ वसिष्ट! अब | अपनी शक्तिका अनुमान करके मासोपवासब्रत
मैं तुम्हारे सम्मुख सबसे उत्तम मासोपवास-व्रतका | करना चाहिये । वानप्रस्थ, संन्यासी एवं विधवा
वर्णन करता हूं । वैष्णव -यक्ञका अनुष्ठान करके, | स्त्री -इनके लिये मासोपवास-व्रतका विधान
आचार्यकी आज्ञा लेकर, कृच्छर आदि ब्रतोंसे | है॥१-२॥