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एक सौ तिरासीवाँ अध्याय |
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अष्टमी तिथिके व्रत
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ ! अब मैं अष्टमीको
किये जानेवाले ब्रतोंका वर्णन करूँगा। उनमें
पहला रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमीका त्रत है।
भाद्रपद मासके कृष्णपक्षकी रोहिणी नक्षत्रसे युक्त
अष्टमी तिथिको ही अर्धरात्रिके समय भगवान्
श्रीकृष्णका प्राकट्य हुआ था, इसलिये इसी
अष्टमीको उनकी जयन्ती मनायी जाती है। इस
तिधिकौ उपवास करनेसे मनुष्य सात जन््मोंके
किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ १-२॥
अतएव भाद्रपदके कृष्णपक्षको रोहिणीनक्षत्रयुक्त
अष्टमीको उपवास रखकर भगवान् श्रीकृष्णका
पूजन करना चाहिये। यह भोग ओर मोक्ष प्रदान
करनेवाला है॥३॥
(पूजनकी विधि इस प्रकार है--)
आबाहन-मन्त्र और नमस्कार
आवाहयाम्यहं कृष्णं बलभद्रं च देवकीम्।
वसुदेवं यशोदां गाः पूजयामि नमोऽस्तु ते॥
योगाय योगपतये योगेशाय नमो नपः।
योगादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः॥
'मैं श्रीकृष्ण, बलभद्र, देवको, वसुदेव,
यशोदादेवी ओर गौओंका आवाहन एवं पूजन
करता हूँ; आप सबको नमस्कार है । योगस्वरूप,
योगपति एवं योगेश्वर श्रीकृष्णके लिये नमस्कार
है । योगके आदिकारण, उत्पत्तिस्थान श्रीगोचिन्दके
लिये बारंबार नमस्कार है '॥ ४-५॥
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णको स्नान कराये
और इस मन्त्रसे उन्हें अर्घ्यदान करे-
अज्ेश्वराय यज्ञाय यज्ञानां पतये नमः॥
यज्ञादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः।
"यज्ञेश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञोके अधिपति
एवं यज्ञके आदि कारण श्रीगोविन्दको बारंबार
नमस्कार है।'
पुष्प-धूप
गृहाण देव पुष्पाणि सुगन्धीनि प्रियाणि ते॥
सर्वकामप्रदो देव भव में देववन्दित।
धूपधूपित धूपं त्वं भूपितैस्त्वं गृहाण मे॥
सुगन्धिधूपगन्धाढ्पं कुरु मां सर्वदा हरे।
“देव! आपके प्रिय ये सुगन्धयुक्तं पुष्प ग्रहण
कीजिये । देवताओंद्वारा पूजित भगवन्! मेरी सारौ
'कामनाएँ सिद्ध कीजिये। आप धूपसे सदा धूपित
हैं, मेरे द्वारा अर्पित धूप-दानसे आप धूपको
सुगन्ध ग्रहण कीजिये। श्रीहरे! मुझे सदा सुगन्धित
पुष्पो, धूप एवं गन्धसे सम्पन्न कोजिये।'
दीप-दान
दीपदीस महादीपं दीपदीमिद सर्वदा ॥
मया दन्तं गृहाण त्वं कुरु चोर्ध्वगतिं च माम्।
विश्वाय विश्वपतये विश्वेशाय नमो नमः॥
विश्चादिसम्भवायैव गोचिन्दाय निवेदितम्।
"प्रभो ! आप सर्वदा दीपके समान देदीप्यमान
एवं दीपको दीति प्रदान करनेवाले हँ मेरे द्वारा
दिया गया यह महादीप ग्रहण कौजिये ओर मुझे
भी (दीपके समान) ऊर्ध्वगतिसे युक्त कीजिये।
विश्वरूप, विश्वपति, विश्वेश्वर श्रीकृष्णके लिये
नमस्कार है, नमस्कार है। विश्वके आदिकारण
श्रीगोविन्दको मैं यह दीप निवेदन करता हूँ।'
शबन-मन्त्र
अर्पय धर्मपतये धर्मेशाय नमो नमः॥
धर्पादिसम्भवायैव गोविन्द शयनं कुरु।
सर्वाय सर्वपतये सर्वेशाय नमो नमः॥
सर्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः!
"धर्मस्वरूप, धर्पके अधिपति, धर्मेश्वर एवं
धर्मके आदिस्थान श्रीवासुदेवको नमस्कार है।
गोविन्द! अब आप शयन कीजिये। सर्वरूप,
सबके अधिपति, सर्वेश्वर, सबके आदिकारण