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तृतीया' व्रत कहा गया, जो पार्वती आदिके

लोकोंको प्रदान करनेबाला है। इसो प्रकार माघ

भाद्रपद और वैशाखकी तृतीयाको त्रत करना

चाहिये॥ २२--२६॥

चैन्रमें 'दमनक-तृतीया ' का व्रत करके पार्वतीकी

"दमनक ' नामक पुष्पोंसे पूजत करनी चाहिये।

मार्गशोर्षमें 'आत्म-तृतीया' का ब्रत किया जाता

है। इसमें पार्वतीका पूजन करके ब्राह्मणको

इच्छानुसार भोजन करावे। मार्गशीर्षकी तृतीयासे

आरम्भ करके, क्रमशः पौष आदि मासमे

उपर्युक्त व्रतका अनुष्ठान करके निम्नलिखित

नामको 'प्रीयताम्‌' से संयुक्त करके, कहे--

गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, कान्ति, सरस्वती,

वैष्णवी, लक्ष्मी, प्रकृति, शिवा ओर नारायणौ ।

इस प्रकार ब्रते करनेवाला सौभाग्य और स्वर्गको

प्राप्त करता है ॥ २७-२८॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणे “तृतीयाके व्रतोक्ता वर्णन” नामक

एक सौ अठहतत्वाँ अध्याय पूरा हुआ# १७८ ॥

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एक सौ उनासीवाँ अध्याय

चतुर्थी तिथिके व्रत

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! अब मैं आपके

सम्मुख भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले चतुर्थी-

सम्बन्धी ब्रतोंका वर्णन करता हूँ। माघके शुक्लपक्षकी

चतुर्थीकों उपवास करके गणेशका पूजन करें।

तदनन्तर पञ्चमीको तिलका भोजन करे। ऐसा करनेसे

मनुष्य बहुत वर्षोतक विघ्नरहित होकर सुखी

रहता है। *गं स्वाहा।'-- यह मूलमन्त्र है। "गां

नमः।' आदिसे हृदयादिका न्यास करे*॥ १-२॥

"आगच्छोल्काय ' कहकर गणेशका आवाहन

ओर "गच्छोल्काय' कहकर विसर्जन करे । इस

प्रकार आदिमे गकारयुक्त ओर अन्तमें "उल्का

शब्दयुक्तं मन्त्रसे उनके आवाहनादि कार्य करे।

गन्धादि उपचारों एवं लड्डुओं आदिद्वारा गणपतिका

पूजन करे॥ ३॥ ( तदनन्तर निम्नलिखित गणेश-

गायत्रीका जप करे-)

ॐ महोल्काय बिदाहे वक्रतुण्डायधीमहि।

तन्नो दन्ती प्रचोदयात्‌ ॥

भाद्रपदके शुक्लपक्षकी चतुर्थीको व्रत करनेवाला

शिवलोकको प्राप्त करता है । " अङ्गारक - चतुर्थी '

(मङ्गलवारसे युक्त चतुर्थी )-को गणेशका पूजन

करके मनुष्व सम्पूर्णं अभीष्ट वस्तुओंको प्रास कर

लेता है । फाल्गुनकी चतुर्थीको रत्रिमे ही भोजन

करे। यह ' अविष्ना चतुर्थी "के नामसे प्रसिद्ध दै ।

चैत्र मासकौ चतुर्थको “दमनक ' नामक पुष्पोंसे

गणेशका पूजन करके मनुष्य सुख-भोग प्राप्त

करता है ॥ ४--६॥

इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमों “चतुर्थीके व्रतोकता कथन” नामक

एक सौ उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १७९ ॥

[

* विभ्नलिदित विधिसे हृदयादि षड़ज़ोंका न्यास करे -

“गां हृदयाय नमः । गों शिरसे स्वाहा । गृ शिखायै वषट्‌ । मैं नेग्रत्रयाय वौषट्‌ # गौ कवचाय हुम्‌। गः अस्त्य फट्‌ ।'

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