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* अध्याय १६७ *

क््ंढण

ये 'कर्म-सादगुण्य-देवता' हैं। इन सबका वैदिक

ब्रीज-मनत्रोसे यजन करे। आक, पलाश, खदिर,

अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा तथा कुशां--

ये क्रमशः नवग्रहोंकी समिधाएँ है । इनको मधु,

घृत एवं दधिसे संयुक्तं करके शतसंख्यामे आठ

बार होम करना चाहिये। एक, आठ और चार

कुम्भ पूर्ण करके पूर्णाहुति एवं वसुधारा दे। फिर

ब्राह्णोको दक्षिणा दे! यजमानका चार कलशोकि

जलसे मन्तरोच्वारणपूर्वक अभिषेक करे। ( अभिषेकके

समय यों कहना चाहिये--) ब्रह्य, विष्णु ओर

महेश्वर आदि देवता तुम्हारा अभिषेक करें।

वासुदेव, जगन्नाथ, भगवान्‌ संकर्षण, प्रद्युम्न ओर

अनिरुद्ध तुम्हे विजय प्रदान कर । देवराज इन्द्र,

भगवान्‌ अग्नि, यमराज, निर्क्रति, वरुण, पवन,

धनाध्यक्ष कुबेर, शिव, ब्रह्मा, शेषनाग एवं समस्त

दिक्पाल सदा तुम्हारी रक्षा करें। कीर्ति, लक्ष्मी,

धृति, मेधा, पुष्टि श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि,

लज्जा, वपु, शान्ति, तुष्टि ओर कान्ति-ये लोक-

जननी धर्मकी पलिनियां तुम्हारा अभिषेक करें।

आदित्य, चन्रमा, भौम, बुध, वृहस्पति, शुक्र,

सूर्यपुत्र शनि, राहु तथा केतु -ये ग्रह परितृप्त होकर

तुम्हारा अभिषेक करें। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष,

राक्षस, सर्प, ऋषि, मनु, गौएँ, देवमाताएँ, देवाड़नाएँ,

वृक्ष, नाग, दैत्य, अप्ससओंके समूह, अस्त्र-

शस्त्र, राजा, वाहन, ओषधियाँ, रत्न, काल-

विभाग, नदी-नद, समुद्र, पर्वत, तीर्थ और मेघ--

ये सब सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंकी सिद्धिके

कपिले सर्वदेवानां

धमं वृषरूपेण

पीतवस्वयुगं

विष्णुस्त्यं

यस्मात्व॑ पृषिवी. सर्वा

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लिये तुम्हारा अभिषेक करें'॥ १--१७ ६ ॥

तदनन्तर यजमान अलंकृत होकर सुवर्ण, गौ,

अन्न और भूमि आदिका निम्नङ्कित मन्त्रोंसे दान

करे -' कपिले रोहिणि! तुम समस्त देवताओंकी

पूजनीया, तीर्थमयी तथा देवमयी हो; अतः मुझे

शान्ति प्रदान करो ।' शङ्कं ! तुम पुण्यमय पदार्थोमं

पुण्यस्वरूप हो, मज़लोंके भी मङ्गल हो, तुम

सदा विष्णुके द्वारा धारण किये जाते हो, अतएव

मुझे शान्ति दोः। धर्म! आप वृषरूपसे स्थित

होकर जगत्को आनन्द प्रदान करते हैं। आप

अष्टमूर्ति शिवके अधिष्ठान हैं, अतः मुझे शान्ति

दीजिये! ॥ १८--२१॥

'सुवर्ण! हिरण्यगर्भके गर्भमें तुम्हारी स्थिति

है। तुम अग्निदेवके वीर्यसे उत्पन्न तथा अनन्त

पुण्यफल वितरण करनेवाले हो, अतः मुझे शान्ति

प्रदान करो । पीताप्बर-वुगल भगवान्‌ वासुदेवको

अत्यन्त प्रिय है; अतः इसके प्रदाने भगवान्‌

श्रीहरि मुझे शान्ति दैः । अश्च! तुम स्वरूपसे विष्णु

हो; क्योंकि तुम अमृतके साथ उत्पन्न हुए हो । तुम

सूर्ब-चन्द्रका सदा संवहन करते हो; अतः मुझे

शान्ति दोः । पृथिवी ! तुम समग्ररूपमे धेनुरूपिणी

हो। तुम केशवके समान समस्त पापोंका सदा

अपहरण करती हो। इसलिये मुझे शान्ति प्रदान

करो" । लौह! हल और आयुध आदि कार्य सर्वदा

तुम्हारे अधीन हैं, अतः मुझे शान्ति दो" ॥ २२--२६॥

"छाग ! तुम यज्ञोके अद्भरूप होकर स्थित हो ।

तुम अग्निदेवके नित्य वाहन हो; अतएव मुझे

पूजनीयासि रोहिनि । तौर्थदेवमयी यस्मादतः शन्तिं प्रयच्छ मे॥ १९ ॥

पुण्यस्त्वं शब्बु॒ पुण्यातां मङ्गलानां च मङ्गलम्‌ । विष्णुना विधृतो नित्यमदः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ २०५

जगदानन्दकारकः । अष्टमूतेंरधिष्ठानमत: शान्तिं श्रयच्छ मे॥ २११

हिरण्यगर्भगर्भस्यं हैमयौज॑ विभावसौः । अतन्तपुष्यफलदम्सा: जाति प्रयच्छ मे॥ २२३

अस्माद्टासुदेवस्थ शाब़भम्‌ । प्रदानात्तस्य चै विष्णुरत: शन्तिं प्रयच्छ से॥२३ब

अश्वरूपेण यस्मादमृतसम्भवः | चनदरा्कवाहनो नित्यमतः चन्ति प्रयच्छ मे॥ २४१

धेनुः केज्नवर्सनिभा । सर्वपापहरा नवित्यमतः शन्तिं प्रयच्छ मे॥ २५१

चस्मादायस कर्माणि तवाधीनानि सर्वदा | लाङ्गलाचायुधादोनि अतः शान्तिं प्रयच्छ मे॥ २६१

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