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+ अध्याय १६६ *

गर्भका प्रसव होनेके बाद रजोदर्शन होनेपर नारी

शुद्ध हो जाती है। श्रीहरिके ध्यानके समान

पापियोंकी शुद्धि करनेवाला कोई प्रायश्चित्त नहीं

है। चण्डालके यहाँ भोजन करके भी ध्यान

करनेसे शुद्धि हो जाती है। जो ब्राह्मण ऐसी

भावना करता है कि “आत्मा 'ध्याता' है, मन

“ध्यान! है, विष्णु “ध्येय है, श्रीहरि उससे प्राप्त

होनेबाले 'फल' हैं और अक्षयत्वकी प्राप्तिके

लिये उसका "विसर्जन" है'', वह श्राद्धमें पड्कि-

पावनोंको भी पवित्र करनेवाला है। जो द्विज

नैष्ठिक धर्ममें आरूढ़ होकर उससे च्युत हो जाता

है, उस आत्मघातीके लिये मैं ऐसा कोई प्रायश्चित्त

नहीं देखता, जिससे कि वह शुद्ध हो सके। जो

अपनी पतली और पुत्रका (असहायावस्था्े )

परित्याग करके संन्यास ग्रहण करते हैं, वे दूसरे

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जन्मे " विदुर '-सं्चक चण्डाल होते हैं, इसमें

तनिक भी संदेह नहीं दै । तदनन्तर वह क्रमशः

सौ वर्षतक गीध, बारह वर्षतक कुत्ता, बीस

वर्षतक जलपक्षी और दस वर्षतक शूकरयोनिका

भोग करता है। फिर वह पुष्प और फलोंसे

रहित कैंटीला वृक्ष होता है और दावाग्निसे दग्ध

होकर अपना अनुगमन करनेवालोंके साथ दूँठ

होता है और इस अवस्थामें एक हजार वर्षतक

चेतनारहित होकर पड़ा रहता है। एक हजार वर्ष

बीतनेके बाद वह ब्रह्मराक्षस होता है। तदनन्तर

योगरूपी नौकाका आश्रय लेनेसे अथवा

कुलके उत्सादनद्वारा उसे मोक्षकी प्राप्ति होती दै ।

इसलिये योगका ही सेवन करे; क्योकि पापोंसे

छुटकारा दिलानेके लिये दूसरा कोई भी मार्ग नहीं

है॥ १४--२८॥

इस श्रकार आदि आग्नेय महापुराणे “विधिन्न शर्मोका कणत" नामक

एक सँ फँसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १६५ ॥

^^

एक सौ छाछठवाँ अध्याय

वर्णाश्रम-धर्म आदिका वर्णन

पुष्कर कहते हैं-- अब मैं श्रौत और स्मार्त

धर्मका वर्णन करता हूं । वह पाँच प्रकारका माना

गया है। वर्णपात्रका आश्रय लेकर जौ अधिकार

प्रवृत्त होता है, उसे " वर्ण -धर्म' जानना चाहिये ।

जैसे कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य -इन तीनों

वर्णोकि लिये उपनयन-संस्कार आवश्यक दै । यह

" वर्ण-धर्म' कहलाता है। आश्रमका अवलम्बन

लेकर जिस पदार्थका संविधान होता है, वह

"आश्रम-धर्प' कहा गया है। जैसे भिन्न

पिण्डादिकका विधान होता है। जो विधि दोनोंके

निमित्तसे प्रवर्तित होती है, उसको “नैमित्तिक'

मानना चाहिये। जैसे प्रायश्चित्तका विधान होता

है॥ १-३ ३॥

राजन्‌! ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और

संन्यासी -- इनसे सम्बन्धित धर्म “आश्रम-धर्म'

माना गया है । दूसरे प्रकारसे भी धर्मके पाँच भेद

होते हैं। षाइ्गुण्य (संधि-विग्रह आदि)-के

अभिधाने जिसकी प्रवृत्ति होती है, वह ' दृष्टार्थ"

बतलाया गया है। उसके तीन भेद होते हैं।

मन्त्र-यश-प्रभृति ' अदृष्टार्थ' हैं, ऐसा मनु आदि

कहते है । इसके सिवा “ उभयार्थक व्यवहार ',

"दृण्ड्धारण' और ' तुल्यार्थ-विकल्प'-ये भी

यज्ञमूलकं धर्मके अड्ग कहे गये है । वेदमें धर्मका

जिस प्रकार प्रतिपादन किया गया है, स्मृतिमें भी

वैसे हौ है। कार्यके लिये स्मृति वेदोक्त धर्मका

अनुवाद करती है -एेसा मनु आदिका मते है।

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